आचार से ही विद्या और कला शोभित होती है : आचार्य महाश्रमण
गंगाशहर।
आचार प्रथम धर्म है, विद्वता बाद में है। विद्वता अच्छी है, प्रशंसा लायक
है पर अहंकारमुक्त विद्वता हो। आचार का ही एक अंग विद्वता है। हम ज्ञान
सम्पन्न, विद्वता सम्पन्न बनें लेकिन आचार की उपेक्षा न करें। आचार से ही
विद्या और कला शोभित होती है। उक्त विचार आचार्यश्री महाश्रमण ने अपने
निर्धारित विषय 'आचार से शोभित विद्या और कलाÓ के अंतर्गत शुक्रवार को सुबह
तेरापंथ भवन में कहे। आचार्यश्री ने कहा कि हमारे जीवन में आचार और विद्या
का महत्व है, लेकिन इनमें पहले किसका महत्व है इस पर विचार करना जरुरी है।
आचार का महत्व ज्यादा है जीवन में। जहां आचार संबंधी बात है वहां ज्ञान का
पहला स्थान है। साधु के पांच महाव्रत का होना आचार है लेकिन पांच महाव्रत
क्या होते हैं, कैसे होते हैं इसका ज्ञान होना भी जरुरी है। दीक्षा से पहले
शिक्षा लेनी आवश्यक है। दीक्षा लेने से क्या होता है, दीक्षा लेने के बाद
क्या किया जाता है इसका ज्ञान होना जरुरी है। अर्थात् दीक्षा से पूर्व
नवतत्व का ज्ञान करवाना आवश्यक है फिर दीक्षा की अनुमति मिले। पहले जानो
फिर आचार का पालन करो। सम्यक् ज्ञान आवश्यक है, सम्यक् आचार के लिए। इच्छा
का अंत नहीं है ये तो आकाश के समान अनन्त है। आवश्यकतापूर्ति अलग बात है
लेकिन आकांक्षाओं को छोड़ो। पहले आचार और विनय को महत्व दें फिर गुणवत्ता
का विकास और उपयोगिता बढ़े नहीं तो जीवन बेकार है। आचार्यश्री ने कहा कि
गाय सीधी हो और दूध न दे तो वह किसी काम की नहीं। दूध देने वाली गाय यदि
लात भी मारे तो भी वह बहुत काम की होती है और जो गाय दूध भी दे और लात भी न
मारे उसका तो कहना ही क्या है। व्यक्ति में कार्य और सेवा यदि विनयपूर्वक
हो तो उसकी महानता दिखलाई देती है।
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