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परिवर्तन में मौलिकता और संस्कृति हो : आचार्य श्री महाश्रमण

बीकानेर। आदमी को जीवन में आगे बढऩे के लिए सुविधावादी मनोवृत्ति का त्याग करना चाहिए। आलस्य त्याग कर कठोर जीवन जीना चाहिए। जो व्यक्ति ऐशो-आराम और आलस्य में लिप्त रहता है तथा सुविधावादी मनोवृत्ति रखता है उस व्यक्ति के जीवन में आगे बढऩे की संभावना नहीं रहती। उक्त विचार आचार्यश्री महाश्रमण ने शनिवार को तेरापंथ भवन में अपने व्याख्यान के दौरान कहे। आचार्यश्री ने कहा कि मनुष्य के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा दुश्मन उसका आलस्य ही होता है और परिश्रम परम मित्र होता है। परिश्रम के समान कोई बन्धु नहीं है। निर्धारित विषय 'मौलिकता और परिवर्तनÓ पर व्याख्यान देते हुए महाश्रमणजी ने कहा कि हमारे जीवन में अपेक्षित परिवर्तन को स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन परिवर्तन उतना ही हो जितनी मौलिकता हो। केवल परिवर्तन... परिवर्तन... करने से कोई परिवर्तन नहीं होता। आवश्यकता इस बात की है कि आप जो बदलाव कर रहे हैं उसमें संस्कृति तथा मौलिकता होनी चाहिए। अपनी संस्कृति को छोड़कर किया गया परिवर्तन सही नहीं हो सकता। भारत के पास ग्रंथों-शास्त्रों का विशाल खजाना है। अध्ययन से हमें मौलिकता की जानकारी मिलती है। अमौलिक लिखना नहीं चाहिए और अनापेक्षित बोलना नहीं चाहिए। कार्य में प्राणतत्व होना चाहिए। चिंतन और मौलिकता से परिपूर्ण हो। हमें हमारे परिवर्तन और कार्यों की मौलिकता का मूल्यांकन करना चाहिए। 
व्याख्यान में आए विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि विद्यार्थियों में   ईमानदारी का संस्कार होना चाहिए।  बालक-बालिकाओं में अच्छे संस्कार आ जाएं तो उनका जीवन अच्छा हो जाएगा। भविष्य संवारना है तो बालक-बालिकाओं को अच्छे और मौलिक संस्कार हमें देेने होंगे। भारत निर्माण के लिए व्यक्ति में अणुव्रत अहिंसा की भावना होनी चाहिए।  धन-वैभव का मूल्य संस्कारों के सामने कुछ भी नहीं।  महाश्रमणजी ने कहा कि विद्यार्थियों में ईमानदारी, मैत्री, परिश्रम और नशा नहीं करने के संस्कार होने चाहिए। परीक्षा में पास होने के लिए अवैध तरीकों का इस्तेमाल करना गलत बात होती है। विद्यार्थियों में ईमानदारी के संस्कार इतने कूट-कूट कर भरे होने चाहिए कि नैतिकता की बात उनके मन में घर कर जाए। जो विद्यार्थी परिश्रम नहीं करता वह पास नहीं हो सकता। सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहिए। भाग्य को प्रधानता देने वाले पुरुष संकीर्ण विचारधारा के होते हैं। परिश्रमी पुरुष का वरण लक्ष्मी भी करती है। विद्यार्थियों को मैत्री भाव से रहना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि वही विद्यार्थी आगे बढ़ सकते हैं और महान् बन सकते हैं जो अपने आचरण, व्यवहार से संस्कारी हों। आकृति से कोई व्यक्ति नीच व महान् नहीं होता। व्यक्ति की प्रकृति से ही उसकी महानता और नीचता का आभास होता है।  जिसका स्वभाव अच्छा होगा वह उत्तम मनुष्य होगा। पद मिले या न मिले लेकिन गुणों, योग्यता के आधार पर महान् बन सकते हैं। इसके लिए दिमाग में, मन में हमेशा अच्छे भाव रहने चाहिए। मेरा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। ऐसी विद्या हो जो मोक्ष की ओर ले जाने वाली होती है। ऐसी विद्या का विकास हो जिससे व्यक्ति गुस्सा, नशा, झूठ बोलना न सीखे। आचार्यश्री ने उपस्थित सभी विद्यार्थियों को नशा नहीं करने का संकल्प दिलाया। सभी विद्यार्थियों ने कोई भी नशीले पदार्थ का सेवन नहीं करने का संकल्प लिया। 
व्याख्यान के दौरान विद्या भारती के अवनीश भटनागर ने भी विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि विद्यार्थियों को अपने जीवन में ईमानदारी रखनी चाहिए, आलस्य त्यागना चाहिए और परिश्रम करना चाहिए। भटनागर ने कहा कि विद्या भारती देशभर में कई विद्यालयों का संचालन कर रही है। पिछले साठ वर्षों से कार्य कर रही यह संस्था आचार्यश्री तुलसी द्वारा दिए गए शिक्षा ज्ञान संबंधी एक पुस्तक भी प्रत्येक विद्यार्थी को वितरित करेगी।
इससे पूर्व मुनिश्री दिनेश कुमार ने कहा कि गुरु के प्रति विनम्रता का भाव रखना चाहिए। गुरु के समक्ष झुक कर जाना चाहिए। आचार्यों के प्रति आचार रखना चाहिए। गुरु की खुराक शिष्यों का विनयभाव तथा विनम्रता होती है। गुरु के समक्ष जब भी बात करें तो मुंह के आगे हाथ या रुमाल अवश्य रखें। मुनिश्री ने कहा कि लघुता से प्रभुता प्राप्त होती है। लघु बनोगे तो प्रभु मिलेंगे। सुफल मिले ऐसा कार्य करें, ऐसा परिश्रम करें कि हमें सुफल वाली सफलता मिले। गृहस्थ को भी भी साधना का अधिकार है। व्यक्ति अपने गृहस्थ जीवन के साथ जप, तप कर साधना कर सकता है।

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