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साध्वी सोम्य मूर्ति जी जीवन परिचय

संस्कारों की अमुल्य सम्पदा को संजोए हुए थी साध्वी सोम्य मूर्ति
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किसी दार्शनिक ने ठीक ही कहा है कि 'जन्म लेना एक नियति हैं और उसे जीना एक पुरुषार्थ, इस पुरुषार्थ का जो सम्यक् उपयोग कर लेता हैं वह जीवन जीने के क्षणों को सार्थक कर देता हैं,' मुझे लगता हैं कि यह कथन श्रीमती सुआदेवी संकलेचा से साध्वी सौम्यमूर्ति बनी दिव्यात्मा के जीवन पर सटीक ढंग से लागु होता हैं,
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स्कूली पढाई की बजाय व्यवहारिक सीख ग्रहण की थी जीवन में
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राजस्थान के सीमांत जिला बाड़मेर के अंतर्गत एक अत्यंत ही छोटे से कस्बे टापरा में धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत पिता श्री मीठालाल जी वडेरा एंव मातुश्री कंकुदेवी वडेरा की सन्तान के रूप में 97 वर्ष पूर्व सुआदेवी का जन्म हुआ, वे टापरा गाँव में जन्मी, पली और बड़ी हुई, और उसी कस्बे में संस्कारी संकलेचा परिवार के श्री जैसमलजी संकलेचा के साथ वैवाहिक बंधन में बंध गई, चूँकि उस दौर में वहां की अन्य महिलाओं की भांति उन्होंने न तो स्कुल, और ना ही कोई कॉलेज का मुहं देखा, यहाँ तक कभी भी स्लेट-पेन्सिल तक को हाथ नहीं लगाया, लेकिन संस्कारों की अथाह सम्पदा को समेटे सुआदेवी स्वयं एक जीते-जागते विद्यालय से कहीं कम नही थी, मधुरता, नम्रता, व्यवहार कुछलता श्रमशीलता आदि उनके जीवन की वे विरल विशेषताएं थी जो कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्ठता को उजागर करती थी,
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अपने युवा पुत्र को सयंम पथ की और अग्रसर करने में बनी योगभुत.
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ससुराल में आकर उन्होंने संस्कारों के पौधे को और भी पल्लवित और पुष्पित किया, और सत्संस्कारों के जीवन महल को सक्षम ढंग से सुदृढ एंव सुरम्य बनाया, इन श्रैष्ठ जीवन मूल्यों का  जीता-जागता  उदाहरण अपने 8 पुत्र-पुत्रियों में सबसे छोटे सपुत्र दिनेशकुमार को युवा अवस्था में सयंम पथ की और अग्रसर करना, और यह पुण्य घड़ी भी आई, न बल्कि संकलेचा परिवार या टापरा कस्बे का, अपितु सम्पूर्ण सिवांची-मालाणी विस्तार का भाग्योदय हुआ, मुनि श्री जीवणमल जी स्वामी(जसोल) की सद्प्रेरणा से करीब 34 साल पूर्व अथार्त वर्ष  1980 में महज 16 साल की युवा अवस्था में टापरा के इस युवा दिनेशकुमार संकलेचा ने तेरापंथ धर्म संघ की राजधानी लाडनूं में परम श्रद्धैय आचार्य श्री तुलसी के कर-कमलो द्वारा मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे वर्तमान में मुनि श्री दिनेश कुमार के रूप में तेरापंथ धर्म संघ के गौरव में अभिवृद्धि कर रहे हैं।
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जीवन अध्याय का एक-एक पृष्ठ त्याग व अध्यात्ममय
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श्रीमती सुआदेवी संकलेचा के जीवन अध्याय का एक-एक पन्ना त्यागमय व धर्म-अध्यात्म से ओत-प्रोत रहा हैं, उनके सपुत्र मोहनलाल जी जो स्वयं एक उपासक के रूप में समय-समय पर धर्म संघ को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं, उन्होंने बताया कि उनकी संसार पक्षीय मातुश्री के जीवन की दिनचर्या सदेव त्यागमय रही हैं, वे अपने जीवन में अब तक दो अट्ठाईयां,एक वर्षी तप (बोरावङ में सम्पन्न) 250 बेला (थोकड़ा सहित), 13 तेला, 24 साल की उम्र अथार्त 53 वर्ष से नियमित चोविहार पच्चखान, 65 वर्षों से तिविहार पच्चखान, प्रत्येक तेरस को उपवास  आदि तप यात्रा की महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं,जब से मुनि दिनेश की दीक्षा हुई है तब से उन्होंने प्राय हर वर्ष तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्यों के चातुर्मास अवधि में तीन से चार माह तक सेवा करना जीवन का परम लक्ष्य बना रखा था।
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पूज्यवरों के मुखारविंद से मिले विभिन्न सम्बोधन
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काफी वर्षों पूर्व टापरा में जब दीक्षा महोत्सव सम्पन्न हुआ तब प्रज्ञा पुरुष आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के मुखारविंद से आप को 'श्रद्धा की प्रतिमूर्ति' का सम्बोधन दिया गया, यह भी कितना गजब का संयोग हैं कि गत दिनों जब आपको संथारा-सलेंखना में दीक्षा प्रदान की गई तो साध्वी के रूप में आपका जो नामकरण किया गया था, मानो उसकी पृष्ठ भूमि तो पहले ही बन गई थी, हुआ यह कि जब आप कुछ वर्ष पूर्व सरदारशहर में गुरु दर्शनार्थ पधारी हुई थी, तब आचार्य श्री महाश्रमणजी ने आप को 'श्रद्धा की सोम्य मूर्ति' के रूप में सम्बोधन प्रदान किया था, यह विधि की विडम्बना ही थी कि आप के सबसे बड़े सपुत्र स्व: श्री मदनलाल जी आप ही के साथ सरदारशहर में गुरु दर्शन  कर ट्रेन से वापस सूरत की और प्रस्थान कर रहे थे कि आबू के निकट ह्रदयघात से आप का दुखद अवसान हो गया था, मधुभाषी मदनलाल जी के साथ बिताए लम्हों का में स्वयं व घोड़दौड़ रोड की वाकिंग ट्रेक पर नियमित आने वाले मरुधर हास्य क्लब के सभी सदस्य साक्षी रहे हैं, उनका मन सदेव धर्म-अध्यात्म में रमता था, तथा समाज के विकास हेतु वे सदेव सटीक उत्साहवर्धक मार्गदर्शन प्रदान करते थे, टापरा में जब मर्यादा महोत्सव होना निश्चित हुआ तो उसे एतिहासिक बनाने हेतु उन्होंने अनेक स्वप्न संजोये थे, लेकिन काल के क्रूर हाथों ने एक साफ दिल व समाज को आगे बढ़ाने वाले नेक इन्सान को हमसे छीन लिया, इतनी वेदना भरे समाचार को मिलने के पश्चात जब श्रीमती सुआदेवी अपने पुत्र पृथ्वीराज जी के साथ फ्लाईट द्वारा वाया दिल्ली सूरत पहुंची तो, घर पहुंचते ही उन्होंने जिस धेर्य व मजबूत मनोबल का परिचय दिया वो हर दृष्टि से प्रशंसनिय हैं, इस करुण दृश्य को देख -सुन कर उन्होंने सभी परिवार जनों को धेर्यता भरी सीख देते हुए ढांढ़स बंधाया और कहा कि 'जो होना था वो हो गया, अब सभी शांति व समता के भाव रखे' इस तरह का व ऐसी विपदा की घड़ी में दृढ संकल्प भरा ऐसा मजबूत मनोबल रखना हर किसी के वश की बात नही थी।
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सम्पूर्ण परिवार की दिनचर्या का हिस्सा हैं धर्म-अध्यात्म।
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श्रीमती सुआदेवी की
इस प्रेरणा भरी सीख का ही परिणाम हैं कि संकलेचा परिवार में वर्तमान में उनकी संसार पक्षीय सपुत्री श्रीमती ज्योति देवी तातेङ, सपुत्र मोहनलाल ,शांतिलाल , पृथ्वीराज ,सोहनलाल व अशोक कुमार सहित संकलेचा परिवार के हर छोटे-बड़े सदस्यों में धार्मिक-अध्यात्मिक संस्कारों की सम्पदा संजोई हुई नजर आती हैं, प्राय प्रत्येक चातुर्मास अवधि में गुरुदर्शन तथा स्थानीय स्तर पर आयोजित चातुर्मासों में चारित्र आत्माओं के नियमित दर्शन, तथा त्याग-तपस्या आदि जप-तप भरे अनुष्ठानों में सक्रियता के साथ सहभागिता रखने जैसे हर किसी के लिए प्रेरक उदाहरण हैं। विसर्जन के क्षेत्र में भी संकलेचा परिवार का अनुकरणीय योगदान इसी प्रेरणा की फलश्रुती हैं
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मजबूत मनोबल के साथ पैदा हए संथारा के भाव
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श्रीमती सुआदेवी के संथारे- सलेंखना के भाव भी इसी मजबूत मनोबल की एक कड़ी हैं, आज से 25 दिन पूर्व अथार्त 1 अप्रेल को तपस्या प्रारम्भ की, 4 अप्रेल को तिविहार संथारे की शुरुआत, और 6 अप्रेल को आप श्री की आचार्य श्री महाश्रमणजी के आदेशानुसार साध्वी श्री कैलाशवतीजी के कर-कमलों द्वारा दीक्षा प्रदान की गई, और आप श्रीमती सुआदेवी से साध्वी सौम्यमूर्ति के रूप में पहचानी गई, 25 अप्रेल को रात्रि 11.50 परसि चोविहार संथारे का पच्चखान, व 26 अप्रेल को प्रात: 00:11 बजे संथारा परिसम्पन्न हो गया, सिटीलाईट स्थित तेरापंथ भवन में संथारा-सलेंखना में रत रही साध्वी सौम्य मूर्ति जी के दर्शनार्थ श्रद्धालुओं का इन 20 दिनों में ताँता सा लगा रहा, विशेष व उल्लेखनीय बिंदु यह भी था कि साधू जीवन के इन 20 दिनों में साध्वी श्री सौम्य मूर्ति 'यथा नाम तथो गुण' का परिचय देती रही, 'जैसा नाम वैसा काम' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए वे धीर-गम्भीर, व सौम्य की प्रति मूर्ति के रूप में नजर आई, जब भी श्रद्धालुगण भक्ति-भाव की स्वरलहरी छेड़ते तो उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक पूर्ण मनोयोग से उसको सुना व हाथों की कोमल अँगुलियों से अपने प्रतिभाव भी प्रकट करती रही, जिन्दगी के एक शतक की दहलीज पर खड़ी साध्वी सोम्य मूर्ति जी की चेतना का पोर-पोर जागृत था, जीवन के अंतिम क्षणों तक उनकी जीवन्तता स्पष्ट झलक रही थी, उनका गृहस्थ जीवन वाला स्वरूप ही बदल गया था, ऐसा प्रतित होता था कि मानों उन्होंने कई वर्षों पूर्व दीक्षा ग्रहण की हो, ऐसी अलोकिक व अप्रितम उपलब्धियां पुण्योदय के बिना हासिल नहीं होती, शनिवार को दिवंगत साध्वी जी की पालकी-यात्रा जब सिटी लाईट स्थित तेरापंथ भवन से उमरा श्मशान घाट की और आगे बढ़ रही थी तो अंतिम विदाई देने हेतु श्रद्धालुओं का जन सैलाब सा उमड़ पड़ा था, और हर कोई कि जुबान पर एक ही बात थी कि संकलेचा परिवार सचमुच में पुण्यशाली हैं, ये भी उल्लेखनीय हैं कि संथारे से दीक्षा तक की यात्रा में मुनि श्री दिनेशकुमारजी की प्रेरणा अद्वितीय थी, और उसी प्रेरणा व पुण्योदय की फलश्रुती थी श्रीमती सुआदेवी के जीवन की यह सयंम यात्रा,
सोम्य की प्रतिमूर्ति साध्वी सौम्यमूर्तिजी को ह्रदय की अनन्त गहराईयों से श्रद्धा-सुमन।
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आलेख-गणपत भंसाली, सूरत(गुजरात)