दिल्ली। 16 जून। पूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी ने अपने पावन पाथेय में फरमाया कि- जीव को जानने वाला व्यक्ति संयम को जान सकता है। मूलभूत तत्व है जीव। जीव है
तभी संयम की बात है। ऐसा जरुरी नहीं की सब साधू बन जाये। कोई कोई भाग्यशाली आत्मा ही ऐसी होती है जिसे साधू बनने का मौका मिलता है। मुमुक्षु बालको का भाग्य है
कि उनको ऐसा मौका मिल रहा है। परमपूज्य आचार्य तुलसी 12 साल की उम्र में साधू बन गए थे। आचार्य महाप्रज्ञ जी उनसे भी कम 11वर्ष की उम्र में साधू बन गए।"ज्यों की त्यों
धर दीनी चदरिया जैसी बात हो गई।"
इस धर्मसंघ को तो छोटी उम्र के ही साधू मिल रहे हैं। जैन शासन में कम से कम 8 वर्ष की उम्र के बाद दीक्षा लेना सम्मत है। हमने 100 दीक्षाओ का संकल्प किया। उस समय नियति का योग था की 43 दीक्षाए एक साथ हुई। मेरा तो मानना है कि जब भाग्योदय होता तब साधू बनने का मौका मिलता है। साधू तो सब नहीं बन सकते पर एक मार्ग खुला है-अणुव्रत का मार्ग-अगार धर्म। श्रावक होना भी बड़ी बात है ,आप लोग साधू न बन सके तो कुछ अंशो में संयमी तो बनें।
पूज्यप्रवर ने श्रावक की व्याख्या करते हुए कहा कि - श्रावक कैसा होता है??
"जीव अजीव जाण्या नहीं;नहीं जाणी छह काय सूना घर रा पावणा ज्यू आया ज्यू जाय।
जीव अजीव जाण्या सही;सही जाणी छह काय बसता घर रा पावणा मीठा भोजन खाय।।।"
श्रावक वह होता है जो यथार्थ में सम्यक श्रद्धा रखता है। सम्यक ज्ञान एवं दर्शन रखता है। यथार्थ का अर्थ है सच्चाई। सच्चाई का नं1 का स्थान है । श्रावक में तत्व ज्ञान होना चाहिए। नव तत्वों का ज्ञान होना चाहिए। अर्हत देव,वीतराग प्रभु, केवली भगवन के प्रति दृढ श्रद्धा होनी चाहिए। जानने के साथ प्रत्याख्यान, त्याग बारह व्रत हो तो ऐसा श्रावक स्वर्ग का पक्का पावणा बन जायेगा। हालाँकि स्वर्ग की कामना नहीं करनी चाहिए। कामना मोक्ष की करनी चाहिए।
"श्रावक वह होता है जिसमें श्रद्धा ,विवेक और क्रिया तीनों का योग होता है।
प्रस्तुति : अंकिता जैन, विनीत मालू, मान्या कुंडलिया, विनय जैन, गौरव जैन, रिषभ जैन।
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