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अहिंसा से विश्वशान्ति संभव : आचार्य श्री महाश्रमण

पूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी ने अपने उद्बोधन में फरमाया कि- शास्त्रों में बताया गया है:- शस्त्र से उपरत हो जाओ ,परित्याग कर दो । जैन आगम के एक अघ्याय में कहा है ,शस्त्रों को छोड़ दो। उन्होंने फरमाया कि- संपूर्ण विश्व में परमाणु शस्त्र का उपयोग न हो ,अणुबम का प्रयोग हिंसा के लिए न हो तो ही  विश्वशान्ति बनी रह सकती है।

अहिंसा के महत्त्व को समझाने हेतु जीव जगत की विवेचना करते हुए बताया कि - जैन जगत में जीव दो प्रकार के बताए गए है -सिद्ध और संसारी। सिद्ध जो जन्म मरण परम्परा से मुक्त है ,जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त है ,जो वीतरागी है ,अशरीरी है ,अनाम है और मोक्ष में बिराजमान है। सबसे सुखी जीव दुनिया में वीतराग आत्मा है। वीतरागी को भीतर का सुख मिलता है, वीतराग आत्मा ने भय को जीत लिया है, साथ में राग और द्वेष को भी जीत लिया है। राग, द्वेष और आवेश को जीतने वाला ही सबसे सुखी है। सुखी बनने के लिए अहिंसा और वीतरागता के मार्ग पर चलना होगा। भगवान महावीर वीतरागी थे, फिर भी गोशालक ने उन्हे कष्ट दिए ,क्योंकि वीतरागी पुर्ण अरोगी नही होते ,केवलज्ञानी भी बीमार पड सकते है ,किन्तु सिद्ध पुर्ण अरोगी होते है। सिद्धों के शरीर नही होते सिर्फ आत्मा होती है। सिद्धों की हिंसा हो ही नही सकती।
जीव का दुसरा प्रकार है -संसारी जीव। संसारी जीव के दो प्रकार है ,त्रस और स्थावर। स्थावर पांच है- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। त्रस के चार प्रकार है - द्विन्द्रिय ,त्रिन्द्रिय ,चतुरिनद्रिय और पन्चेनद्रिय। हम वैसे पन्चेनद्रिय है पर उपयोग की दृष्टि से एक ही इन्द्रिय है । पन्चेनद्रिय के चार भेद है- नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव।

जीवो की समानता को समझो। अगर मुझे कष्ट होता है तो दुसरों को भी होता है । ज्ञानी के ज्ञान का सार यह है कि वह किसी की हिंसा न करे। मुझे दु:ख अप्रिय है तो दुसरों को भी अप्रिय है। जीवलोक की समानता को समझते हुए अपने को हिंसा से बचना चाहिए एवं शस्त्र से उपरत हो जाना चाहिए ।