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विद्यार्थियों का हो सर्वांगीण विकास - आचार्य श्री महाश्रमण जी

नई दिल्ली, 25 सितम्बर, 2014
अध्यात्म साधना केंद्र के वर्धमान समवसरण में पूज्य प्रवर आचार्य श्री महाश्रमण जी के पावन सानिध्य में जीवन विज्ञान सेमिनार का आयोजन हुआ। मंगलाचरण द्वारा कार्यक्रम का प्रारंभ केन्द्रीय सदस्य श्रीमती राज गुनेचा ने किया। जीवन विज्ञान को निरंतर अपना समय देने वाले मुनि श्री किशन लाल जी ने अपने प्रेरक वक्तव्य में बताया कि जीवन विज्ञान जीने का श्रेष्ठतम विज्ञान है जिसके द्वारा हम अपने जीवन को शांत, सुन्दर एवं आनंदपूर्ण बना सकते हैं। जीवन विज्ञान शरीर, मन और बुद्धि के सम्बन्ध में औषधि बना है। जीवन विज्ञान एक प्रायोगिक शिक्षण है जिसमें प्रयोग के माध्यम से परिणाम आता है। जीवन विज्ञान में मुख्यत: मुद्रा का सही होना, श्वास का सही होना एवं सकारात्मक सोच का होना जरूरी है।
"जीवन में हो नैतिक मूल्यों का विकास"/"विद्यार्थियों का हो सर्वांगीण विकास"
आचार्य श्री महाश्रमण जी ने फ़रमाया कि जो अविनीत होता है उसे विपदा प्राप्त होती है। वह विपति का भागीदार बनकर चलता है। जो विनीत होता है उसे संपत्ति मिलती है। यह सिद्धांत जिसके समझ में आ जाए वह विद्यार्थी ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ जाता है। ज्ञान से बढ़कर पवित्र व प्रकाशकारी चीज इस दुनिया में कोई नहीं है। जिसके पास बुद्धि है उसके पास एक बल आ जाता है। विद्यार्थी में बुद्धि के साथ भाव शुद्धि भी होनी चाहिए। शुद्ध बुद्धि कामधेनु होती है। माता पिता 3 उम्मीदों के साथ बच्चे को विद्यालय भेजते हैं- ज्ञानवान बने, आत्म निर्भर बने तथा सुसंस्कार संपन्न बने। इन 3 उम्मीदों की पूर्ति जिन विद्या संस्थानों में होती है, वह विद्या संस्थान बहुत सफल है। एक विद्यार्थी के शारीरिक व बौद्धिक विकास के साथ भावात्मक व मानसिक विकास भी होना चाहिए। जीवन में सर्वांगीण विकास की अपेक्षा रहती है।
आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने जीवन विज्ञान का उपक्रम शुरू किया। दो प्रकार की विद्या बताई जाती है। लौकिक विद्या जैसे भूगोल, खगोल, गणित आदि। लौकोत्तर विद्या जैसे अध्यात्म की विद्या। सिद्धांत है कि परमात्मा हर जगह है परन्तु परमात्मा कुछ करे न करे, हमारे कर्म हमें फल अवश्य देते हैं। आदमी को छिपकर भी गलत काम नहीं करने चाहिए। विद्यार्थी में पुस्तकीय ज्ञान के साथ अच्छे संस्कारों का निर्माण भी होना चाहिए। बालक ही युवा बनता है, इसलिए उस पर अधिक ध्यान दिया जाये। विद्यार्थी में नशा मुक्ति, ईमानदारी व मैत्री का संस्कार आये, पुरुषार्थ की समझ आये। आलस्य एक ऐसा तत्व है जो शरीर में रहता है और विकास नही करने देता।
आज समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता है। विद्यालय एक ऐसा कार्य क्षेत्र है जहाँ सहजतया बच्चे जाते हैं। वहां अगर जीवन विज्ञान का उपक्रम चले, संस्कार निर्माण हो तो सहज ही बाल पीढ़ी के निर्माण का काम हो सकता है। विचार भी पुष्ट हो और आचार भी पुष्ट हो। ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हो जिनमें ज्ञान आचार सम्पन्नता हो। इसलिए उनके सम्पूर्ण विकास की और ध्यान दिया जाना चाहिए।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि श्री जगमोहन सिंह राजपूत जो कि भारत सरकार के शिक्षा विभाग के उच्च पदों पर कार्यरत हैं तथा श्रीमती रेखा पत्राचार की दुनिया से पधारे तथा अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी।

फोटो व रिपोर्ट साभार : डॉ कुसुम लुनीया, मान्य कुण्डलिया, विनीत मालु, दिव्या जैन JTN टीम दिल्ली

प्रस्तुति : अभातेयुप जैन तेरापंथ न्यूज़ ब्यूरो से महावीर सेमलनी, संजय वैद मेहता,
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