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ऐ सूरज यही तो वक्त है तेरे निकलने का!

आचार्य महाश्रमण की अहिंसा यात्रा का आगाज (9 नवंबर 2014)
ऐ सूरज यही तो वक्त है तेरे निकलने का!
लेखक - आलोक खटेड़ (लाडनूं)
भारत की गौरवषाली अध्यात्म परंपरा में तेरापंथ धर्मसंघ का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इस धर्म संघ के वर्तमान अधिशास्ता आचार्य महाश्रमण अपने उपदेशों के आलोक से प्रतिदिन सैंकड़ों लोगों के जीवन के रूपांतरण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के मार्गदर्शन से आलोकित आपके व्यक्तित्व की आभा से समाज अभिभूत है। आपके उपदेषों की ऊष्मा से हजारों लोगों के जीवन की दशा और दिशा परिवर्तित हुई है। ऐसे ऊर्जावान संत आचार्य महाश्रमण आगामी 9 नवंबर को देश की राजधानी दिल्ली के लाल किले से अहिंसा यात्रा पुनः प्रारंभ कर रहे हैं।
4 दिसंबर 2001 को तेरापंथ के तत्कालीन अधिशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ ने राजस्थान के सुजानगढ कस्बे से अहिंसा यात्रा के माध्यम से राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदि राज्यों के 500 से अधिक गांवों, कस्बों व शहरों की पद यात्रा कर लाखों लोगों को अहिंसा का संदेश दिया। इस संपूर्ण यात्रा में आचार्य महाश्रमण अपने गुरु आचार्य महाप्रज्ञ के साथ रहे। अहिंसा यात्रा अभियान में अहिंसा प्रशिक्षण शिविरों, सांप्रदायिक सौहार्द व नैतिक मूल्यो के विकास के लिए संगोष्ठियों व सम्मेलनों का निरंतर आयोजन हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अहिंसक चेतना के जागरण, नैतिक मूल्यों के विकास और मानवाधिकारों की सुरक्षा के उद्देश्य से प्रवर्तित इस अहिंसा यात्रा का प्रभाव देश और समाज पर परिलक्षित हुआ।
अपने गुरु आचार्य महाप्रज्ञ के साथ लगभग 7 वर्ष तक करीब 10 हजार किलोमीटर की अहिंसा यात्रा करने वाले आचार्य महाश्रमण ने उनके महाप्रयाण के बाद भी लगभग 2 वर्ष तक अहिंसा यात्रा को जारी रखा। इस बीच वर्ष 2013 के जुलाई माह में चातुर्मास प्रवास के लिए लाडनूं पहुंचने पर आचार्य महाश्रमण ने अहिंसा यात्रा को स्थगित करने की घोषणा कर दी। अहिंसा की अलख जगाने के बाद अहिंसा यात्रा के स्थगन की घोषणा करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा कि दुनिया में अहिंसा की आवश्यकता व प्रासंगिकता सदैव रहेगी। अहिंसा यात्रा के माध्यम से जन मानस में अहिंसा, नैतिकता एवं चारित्रिक उत्थान की जो भावना जागृत हुई है, वह हमेशा जीवंत रहे, तब ही इस अभियान की सार्थकता सिद्ध होगी। अपने लाडनूं चातुर्मास के दौरान ही आचार्य महाश्रमण को महसूस हुआ कि देश और समाज को अहिंसा यात्रा की अभी अत्यधिक जरुरत है। इस जरुरत को महसूस करते हुए आचार्य महाश्रमण ने  23 सितंबर 2013 को इस लेखक को दिए एक इंटरव्यू में पहली बार यह घोषणा की कि आचार्य तुलसी जन्म शताब्दी वर्ष की परिसंपन्नता के तुरंत बाद दिल्ली से अहिंसा यात्रा पुनः प्रारंभ की जाएगी। और अब आगामी 9 नवंबर को राजधानी दिल्ली के लाल किले से वह बहुप्रतीक्षित अहिंसा यात्रा पुनः प्रारंभ हो रही है। इस बार अहिंसा यात्रा के अंतर्गत आचार्य महाश्रमण अपने साधु-साध्वियों के साथ 30 हजार किलोमीटर लंबी पदयात्रा करते हुए भारत के मध्यप्रदेश, बिहार, असम, मेघालय, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों सहित सुदूर नेपाल व भूटान देशों तक में अहिंसा के दीप प्रज्ज्वलित करेंगे और नैतिकता व मानवता के मूल्यों से लोगों के जीवन के रूपांतरण का पथ प्रशस्त करेंगे। आचार्य महाश्रमण ने अहिंसा यात्रा के तीन उद्देश्य निर्धारित किए हैं- सद्भावना का संप्रसार, नैतिकता का प्रचार-प्रसार एवं नशामुक्ति की प्रेरणा।
13 वर्ष पूर्व जब 4 दिसंबर 2001 को आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा यात्रा सुजानगढ से प्रारंभ की तो इसका देश में सर्वत्र स्वागत हुआ। हिंसा और आतंकवाद से त्रस्त भारतीय समाज के लिए अहिंसा यात्रा शांति और सौहार्द की पुनर्वापसी के सशक्त माध्यम के रूप में सामने आई। यात्रा के दौरान आचार्य महाप्रज्ञ की पहल पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद एवं देश के प्रमुख धर्माचार्यों की उपस्थित में सूरत घोषणा पत्र जारी किया गया था। इस घोषणा पत्र में इस बात पर बल दिया गया कि विश्व शांति के लिए अहिंसा, सहिष्णुता व सांप्रदायिक सौहार्द विकसित करने के बहुआयामी प्रयत्न किए जाने चाहिए। देश के अनेक धर्मगुरुओं, राजनेताओं, पत्रकारों, शिक्षाशास्त्रियांे व समाजसेवियों ने इस दिशा में गंभीर व ईमानदार प्रयत्न करने का संकल्प भी लिया। आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा यात्रा के द्वारा अखिल विश्व में अहिंसा की अलख जगाई। उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, संगोष्ठियों व सभाओं में विश्व शांति का संदेश दिया। वे सांप्रदायिक सौहार्द, सहिष्णुता, शोषण मुक्ति व सहअस्तित्त्व की भावना को अहिंसा का मूल आधार मानते थे। 
अहिंसा यात्रा के माध्यम से जब देश की जनता अहिंसा के महत्त्व व प्रभाव से परिचित हुई तो लोगों का जीवन बदलने लगा। वे अहिंसा को संपूर्णता के साथ जीवन में अपनाने का व्रत करने लगे। अहिंसा के विकास के लिए जनसमाज अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान जैसे उपक्रमों की ओर प्रवृत होने लगा। अहिंसा विकास के लिए आयोजित विभिन्न शिविरों में डाक्टरों, शिक्षकों, राजनेताओं, पत्रकारों, पुलिस अधिकारियों से लेकर जेलों में सजा काट रहे अपराधियों तक ने भाग लिया। इन शिविरों में शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और भावों की निर्मलता के लिए विभिन्न कारगर प्रयोग कराए जाते, जिनसे व्यक्ति का जीवन रूपांतरित हो सके। आचार्य महाप्रज्ञ मानते थे कि हिंसा और आतंक के कारणों को समझे बिना अहिंसा की अवधारणा साकार नहीं हो सकती। हमारे देश में अभाव, गरीबी, शोषण, उत्पीड़न और भेदभाव हिंसा के प्रमुख कारण हैं। जब तक समाज में अभाव और अन्याय का अस्तित्त्व रहेगा, तब तक समाज में शांति की स्थापना और अहिंसा का विकास संभव नहीं है। जब व्यक्ति को अपने श्रम का पर्याप्त प्रतिफल नहीं मिलता या वह अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित रहता है तो उसकी करुणा समाप्त हो जाती है और वह हिंसा की ओर प्रवृत होता है। विश्व में आज भी रंगभेद और छूआछूत का बोलबाला है। इन समस्याओं से निबटने के लिए मनुष्य को भगवती अहिंसा को अपनाना होगा। वस्तुतः अहिंसा केवल उपदेश की वस्तु नहीं है, बल्कि एक चिरंतन सिद्धांत है, जिसे हमें समझना और जीना होगा। इसके लिए आधुनिक संदर्भों में इस पर शोध की जानी चाहिए तथा मनुष्य को अहिंसक जीवन जीने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
आज समूची दुनिया में हिंसा का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। लेकिन अहिंसा का कोई प्रायोगिक प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। आज विश्व में हिंसा और अशांति इस हद तक बढ गई है कि मनुष्य अहिंसा की आवश्यकता को गहराई से महसूस कर रहा है। लेकिन दिक्कत यह है कि व्यक्ति अहिंसा को हिंसा के भय से उबरने के औजार के रूप में देखता है, वह अहिंसा को जीवन का मूल्य नहीं मानता। जब तक समाज में अहिंसा की सकारात्मक अवधारणा का विकास नहीं होगा, तब तक हम शांति और सन्नाटे के सूक्ष्म अंतर को नहीं समझ पाएंगे। विश्व शांति के लिए हमें अपनी अहिंसक चेतना को जागृत व विकसित करना होगा। इसे किसी देश या समाज तक सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि विश्व भर में इस दिशा में चेतना जगानी होगी। आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा यात्रा के माध्यम से मानवाधिकारों की सुरक्षा पर अत्यधिक बल दिया। यह यात्रा किसी जाति, संप्रदाय, देश, लिंग, नस्ल का भेदभाव किए बिना मानवीय स्वतंत्रता की आधार भूमि तैयार कर रही हैं। 
'जिस देश में गंगा बहती है' उस देश के वासी होने का हमारा गर्वबोध उस दम चकनाचूर हो जाता है, जब हमारा अपने आसपास के परिवेश में आए दिन वैमनस्य, हिंसा, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, सांप्रदायिक उन्माद आदि की घटनाओं से वास्ता पड़ता है। भ्रष्टाचार, घृणा और नशाखोरी के जख्मों से त्रस्त हमारे देश और समाज में अहिंसा, नैतिकता, सद्भावना, सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे की अलख जगाने के लिए आगामी 9 नवंबर को आचार्य महाश्रमण अपने गुरु आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रवर्तित अहिंसा यात्रा को पुनः प्रारंभ कर रहे हैं, तो जन मन में आशाओं का संचरित हो उठना स्वाभाविक है। 
आचार्य महाश्रमण ने सांप्रदायिक सौहार्द एवं सद्भावना को अहिंसा यात्रा का मुख्य उद्देश्य माना है। सौहार्द एवं सद्भाव किसी भी देश, समाज और परिवार की खुशहाली की नींव है। आचार्य महाश्रमण अपने प्रवचनों में समय-समय पर लोगों को सांप्रदायिक सौहार्द व सद्भावना के विकास के लिए अनेकांत दर्शन के अभ्यास की प्रेरणा देते रहे हैं। अहिंसा यात्रा के अंतर्गत लोगों को सद्भाव और सौहार्द के विकास का प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया जाएगा, जिससे देश, समाज और परिवार में बढ रहे कटुता वैमनस्य और दुराग्रह के विष के विरेचन का पथ प्रशस्त हो सकेगा। इसी प्रकार आचार्य महाश्रमण ने नैतिक मूल्यों के विकास को भी अपनी अहिंसा यात्रा का प्रमुख एजेंडा बनाया है। आज के अर्थप्रधान युग में बेईमानी, भ्रष्टाचार और अनैतिकता हमारे देश की प्रमुख समस्या बन गई है। गबन, चोरी, रिश्वतखोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी, कालाबाजारी या अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार के समाचार आए दिन हमारे सामने आते हैं, और हमें विचलित करते हैं। स्थानीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार की भयावह घटनाएं जनमन को व्यथित करती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भ्रष्टाचार के बढते साम्राज्य का विलाप करने वाले हम लोग भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने से बाज नहीं आते। निरंतर बढते जा रहे भ्रष्टाचार पर उपजने वाला हमारा आक्रोश उस दम ठंडा पड़ जाता है, जब कोई नेता या अफसर कानून की परवाह किए बगैर हमें वांछित कोटा, परमिट या लायसेंस दिला देते हैं। और यदि कोई नेता हमारे नालायक बच्चों और अर्हत्ताहीन रिश्तेदारों को नौकरी लगाने या सरकारी ठेका दिलाने से मुकर जाए या हमारे काम को कानून के आड़े आने की बात कह कर टाल दे तो हमें वह नाकारा नजर आने लगता है। जहां वह कानून-कायदों को ताक पर रखकर अर्हत्ताहीन लोगों को सरकारी सुविधाओं की रेवड़ियां बांटने लगता है, वहीं वह हमारा सच्चा कृपा पात्र बन जाता है। हमें अपनी अपेक्षाओं व लालसाओं को नियंत्रित कर जीवन में नैतिकता व ईमानदारी को अपनाने का संकल्प करना चाहिए। यदि हर व्यक्ति अपने जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के मूल्यों को अपनाने लगे तो भ्रष्टाचार के थमने की दिल्ली दूर नहीं होगी। व्यक्ति चाहे शिक्षक हों या छात्र, व्यापारी हों या सरकारी कर्मचारी या अधिकारी, राजनेता हों या चिकित्सक, पत्रकार हों या कलाकार, फिल्म निर्माता हों या कवि- किसी भी वर्ग या व्यवसाय में रहते हुए वह अपने कार्य और दायित्व का ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करे तो वह न केवल निजी स्तर पर सफल होगा, बल्कि उसे देश और समाज के चहुंमुखी विकास में सहभागी बनने का सौभाग्य भी हासिल होगा। अभिभावकों को अपने बच्चों को बड़ा आदमी बनने से पूर्व अच्छा आदमी बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए। अनैतिकता और भ्रष्टाचार को अपना कर हम अथाह धन-संपदा भले अर्जित कर लें, लेकिन जीवन के वास्तविक सुख और मानसिक शांति  की मंजिल तक ईमानदारी के मार्ग पर चलकर ही पहुंचा जा सकता है। आचार्य महाश्रमण लालसा के परिसीमन को नैतिकता और ईमानदारी की नींव मानते हैं। वे कहते हैं कि नैतिक और ईमानदार व्यक्ति धनवान न भी बन सके तो भी वह अनैक साधनों से धनी बनने वाले लोगों से अधिक सुखी रहता है।
आचार्य महाश्रमण नशे को नाश का द्वार मानते हैैं। वे लोगों को नशे से दूर रहने की निरंतर प्रेरणा देते रहे हैं। तेरापंथ धर्मसंघ की विभिन्न संस्थाओं के तत्वावधान में समय-समय पर नशामुक्ति के प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है। आचार्य महाश्रमण के उपदेशों से प्रेरित होकर हजारों लोगों ने नशा त्यागने की सार्वजनिक घोषणा की है। नशे के परित्याग के साथ ही व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा बदल जाती है। नशे से व्यक्ति की क्षमता व ऊर्जा का हªस तो होता ही है, बल्कि इस प्रवृति ने समाज में आपराधिक गतिविधियों को भी पोषित व विकसित किया है। अब जब आचार्य महाश्रमण ने नशा मुक्ति अभियान को अहिंसा यात्रा का प्रमुख आयाम बनाया है तो यह आशा बलवान हो उठी है कि वे लोगों को नशा मुक्ति के लिए प्रेरित कर उनके जीवन में खुशहाली की नई सुबह का आगाज करेंगे।
भारत में भगवान महावीर और गौतम बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ तक अनेक महापुरुषों व संतों ने अहिंसा के महत्त्व और प्रभावों से जन-जन का परिचय कराया है। आज आचार्य महाश्रमण भारतीय समाज को अहिंसा के उसी राजमार्ग पर चलने की सार्थक प्रेरणा दे रहे हैं। वे मानते हैं कि हिंसा से तनाव पैदा होता है और वह हमारी मानवीय संवेदना को समाप्त करती है। वह समन्वय, सद्भाव व सहअस्तित्त्व के भावों का लोप करती है। आज अपेक्षित है कि विश्व मंच पर अहिंसा का प्रभाव बढे, अहिंसा जन-जन के जीवन का अंग बने। 2001 में प्रारंभ हुई अहिंसा यात्रा का देश भर में जिस उत्साह के साथ स्वागत हुआ, उससे इस आशा को बल मिलता है कि अहिंसा एवं नैतिकता के मूल्यों के प्रति भारतीय जनता में चेतना जागृत हुई है। लेकिन आचार्य महाश्रमण मानते हैं कि अहिंसक चेतना को जागृत करने के लिए अभी हमें अपने प्रयत्न जारी रखने होंगे। हमें थमना नहीं है, बल्कि चलते रहना है। आचार्य महाश्रमण देश और समाज में अहिंसा और नैतिकता  का वातावरण सृजित करने एवं स्वस्थ मूल्यों का विकास करने के लिए अहिंसा यात्रा का पुनः आगाज कर रहे हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विडंबनाओं के अंधकार से हताश होने की बजाय हम ऊर्जावान संत आचार्य महाश्रमण में प्रकाश के स्रोत सूरज का प्रतिरूप देखते हुए कवि की इन पंक्तियों के माध्यम से आह्वान करेंगे- 
''स्याह रात नाम ही नहीं ले रही है ढलने का,
ऐ सूरज यही तो वक्त है तेरे निकलने का।''
निस्संदेह समाज में स्थितियां विकट हैं। समस्याएं और मुश्किलें कदम-कदम पर अपने होने का अहसास कराती है। ऐसे दुरुह दौर में आचार्य महाश्रमण ने जिस साहस, धैर्य और सकारात्मक चिंतन के साथ नकारात्मक प्रवृृतियों से टकराने की पहल की है, उसे देखकर प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार की कविता की ये पंक्तियां उद्धरित करने योग्य लगती है-
''हो चुकी है पीर पर्वत सर पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए,
मेरे सीने में न सही, तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए।''

लेखक -

आलोक खटेड़ 
संपादक, भारतीय समाज, लाडनूं (राज)