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अपने कर्तव्यों का बोध करें- आचार्य श्री महाश्रमण जी

2 दिसम्बर 2014, मुकदम बिहारी महाविद्यालय, परम पुज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी अपने प्रात: कालिन प्रवचन में उद्बोधन प्रदान करते हुए कहा की पहली शिक्षा दी गई है की नींद को बहुमान न दे शरीर के लिए नींद लेना जरुरी भी है पर नींद को ज्यादा लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जितना संभव हो आदमी अच्छे कार्य करें। जो जाग्रत रहता है उसकी बुद्धि बढ़ती है, जो जागता है वह धन्य है जो सोता है वह धन्य नहीं होता है। शरीर से जागना एक बात है शरीर से सोना भी आवश्यक होता है और जाग्रत रहना भी आवश्यक होता है। एक शरीर से सोना-जागना होता है और दुसरा सोना-जागना भावेषणा से होता है। शरीर से सोना-जागना द्रव्य सोना-जागना है, चेतना से सोना-जागना भावत: सोना-जागना होता है। आदमी मुर्छा में रहता है मोह में रहता है धर्म की बात उसको सुहाती ही नहीं है इसका मतलब है वह व्यक्ति भाव निद्रा में सोया हुआ है, पदार्थों की मुर्छा में सो जाता है। द्रव्य निद्रा को भी बहुमान नहीं देना चाहिए। और दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या में जो जागरूक रहता है वह स्वस्थ रहता है। सोना-जागना जिसका तय समय पर होना है जिसकी दिनचर्या समय पर होती है उसको समय प्रबंधन का एक मंत्र अपनाना।

ज्यादा हास्य नहीं होना चाहिए- ज्यादा हंसी-मजाक में नहीं जाना चाहिए। प्रसन्न रहना एक बात है, हंसी-मजाक में समय नष्ट करना अलग बात है। अपने समय को बर्बाद नहीं करें, समय का सदुपयोग करें। एक जो हास्य करता है और एक जो गुस्सा करने की अपेक्षा तो मैं हास्य विनोद को कम ख़राब मानता हूँ। उसकी अपेक्षा तो गलियां बोलना, गुस्सा करना उसकी अपेक्षा हास्य कम खराब है। कम से कम हास्य विनोद वाला गुस्सा तो नहीं करता, लडाई-झगड़ा तो नहीं करता। ठीक है थोड़ा विनोद करता है दुसरों को थोड़ा हंसा देता है। किसी को तकलीफ तो नहीं दी फिर भी जिसको साधना करनी है उसको हंसी-मजाक में समय नहीं लगाना चाहिए। ध्यान योगी का हास्य हृदय में होता है, जो मुनि लोग है वो मुस्कान के साथ में हंसता रहता है। पण्डित का हास्य आँखों में होता है और निर्लज्ज होता है वह जोर-जोर से हंसता है। यह हास्य के चार प्रकार है। तो यहाँ हास्य की बात कहीं गयी स्मप्रहात नहीं करना चाहिए।

मैथुन संबंधी बातों में रमण नहीं करना चाहिए अथवा परस्पर ज्यादा व्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिए। स्त्री कथा, दंत कथा, देश कथा, राज कथा इन कथाओं से बचना चाहिए। मैथुन संबंधी बातों में और व्यर्थ बातों में रमण नहीं करना चाहिए। ज्यादा रस नहीं लेना चाहिए। तो क्या करना चाहिए- संघ स्वाध्याय में रहो। हमारे जीवन में कर्त्तव्य निष्ठा का बड़ा महत्व है, जिसका जो कर्त्तव्य होता है उसके प्रति जागरूक रहना आदमी के लिए लाभदायी होता है। जो आदमी अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक नहीं है तो उस आदमी में कमी है। कर्त्तव्य क्या है? यह इतना बड़ी बात नहीं है, जो भी तुम्हारा कर्त्तव्य है उनके प्रति जागरूक रहना वही अच्छी बात है। प्राणियों का परस्थर उपग्रह होता है परस्थर आलम्बन से काम चलता है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों का काम एक-दूसरे से चलता है। शिक्षक का कर्तव्य है अपने विद्यार्थी पर ध्यान देना अपने विद्यार्थी में संस्कार का निर्माण करना विद्यार्थी का कर्तव्य है शिक्षक को सम्मान का भाव रखना शिक्षक के निर्देश के प्रति जागरूक रहना यह विद्यार्थी का कर्तव्य है। पिता पुत्र का भी अपना अपना कर्तव्य होता है। 

माता-पिता शत्रु है जो अपने बच्चों को नही पढ़ाते है बच्चों की शिक्षा आदि पर ध्यान देना माता-पिता का कर्तव्य है तो बच्चों का कर्तव्य है की माता पिता की सेवा करे, उनका ध्यान रखे यह संतान का कर्तव्य होता है। गुरु और शिष्य का भी अपना-अपना कर्तव्य है गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए और गुरु असम्मान नही करना चाहिए यह शिष्य का कर्तव्य है तो गुरु का भी कर्तव्य हे की वह अपने शिष्य को अच्छी जगह नियोजित करने का प्रयास करे उसे अच्छा ज्ञान दे। आचार्य तुलसी को हमने देखा वो वर्षो तक प्रवचन देते शिष्यो को पढ़ाते ज्ञान देते। गुरु अर्थात गु- अन्धकार, रु- अंधकार को रोकना, जो अंधकार से अंधे है उन्हें ज्ञान की अंजल सलाका से जो चक्षु को उदघाटित कर देता है। ऐसे गुरु को नमस्कार- जो साधना शील है दुसरो को ज्ञान देता है। धर्माचार्य दीक्षा देते है, ज्ञान देते है, तारते है वे गुरु कहलाते है। धर्माचार्य खुद तरते है और दुसरो को तारने का प्रयास करते है ज्ञान दान, चरित्र दान आचार्यो का कर्तव्य है। शिष्य का कर्तव्य है गुरु की आज्ञा में रहना, सेवा करना तो सभी अपने अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहे।
संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।