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जो ज्ञानी और त्यागी गुरु होते है, उनको सद्गुरु भी कहा जाता है - आचार्य श्री महाश्रमण जी

15 दिसंबर 2014,सराय छोला गाँव, धौलपुर में एक दिन का प्रवास संपन्न कर पूज्यपाद आचार्य श्री महाश्रमण जी, धवलसेना को साथ लिए, राजस्थान की सीमा को छोड़कर, मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गए। छोटी बड़ी पहाडियों के मध्य से विचरती हुई चम्बल नदी के विशाल पुल पर, मध्यप्रदेश के श्रावकों द्वारा भव्य स्वागत किया गया। मध्य प्रदेश सरकार की ओर से भी राजकीय मेहमान (पुज्यप्रवर) का स्वागत किया गया। सराय छोला गाँव के किसान पब्लिक स्कूल के परिसर में पहुँचने पर, गाँव के सरपंच के सुपुत्र श्री रामसेवक जी और स्कूल के संचालक श्री देवेंद्र सिंह जी गुर्जर द्वारा गुरुदेव का स्वागत किया गया।
इस अवसर पर पुज्यप्रवर ने फ़रमाया - सारी दुनिया में गुरु को महत्त्व दिया गया है। जो ज्ञानी और त्यागी गुरु होते है, उनको सद्गुरु भी कहा जाता है। ऐसे गुरुओं से पथदर्शन प्राप्त करना कल्याणकारी होता है, अत: ऐसे महापुरुषों के वचनों को आत्मसात करना चाहिए, उनके वचनों को आचरण में उतरना चाहिए। शास्त्र में कहा गया कि आचार्य या गुरु को कभी अप्रसन्न नही करना चाहिए, उनके वचनों की अवहेलना नही करनी चाहिए, क्यूंकि गुरु के वचनों की अवहेलना करने से, मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती और अप्रसन्न गुरु बोधि को अबोधि में परिवर्तित कर सकते है। जो गुरु आगम - शास्त्र का ज्ञान प्रदान करते है, अज्ञानी रूप के अंधकार को मिटने वाले है, पुण्य पाप की व्याख्या करने वाले है, सुगति और दुर्गति को समझाने वाले है, करणीय - अकरणीय को बतलाने वाले है, वही संसार रुपी सागर से तरने - तारने वाले होते है और कोई नहीं तार सकता। इसलिए गुरु आज्ञा का महत्तव होता है, अत: गुरु आज्ञा पर अनापेक्षित विचार नहीं करना चाहिए, तर्क - फर्क नहीं करना चाहिए।
विषयों का त्याग कर दिया, ध्यान साधना की, तपस्या की, गोचरी आदि की भावना भायी, इन्द्रिय दमन भी किया, आगमों का अध्ययन किया, पर इन सबका कोई विशेष महत्त्व नहीं; महत्त्व है- गुरु की आज्ञा का पालन करना। गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि होती है। गुरु सेनापति के समान होता है, बाकि तो गुरु की सेना हो जाती है। शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, और महेश तक की उपमा दी गयी है, क्योंकि अज्ञान रुपी अन्ध को, ज्ञान के अन्जन से, गुरु ही मिटा सकते है।
गुरु की कठोर वाणी या उपालम्भ को, जो समभाव से सहन कर लेते है, वही शिष्य महानता को प्राप्त होते है। जैसे हीरा, शान पर खरा उतरने पर ही, राजा के मुकुट की शोभा पाता है, वैसे ही शिष्य को गुरु के वचनों पर शीश चढ़ाने के लिए तैयार रहना चाहिए। विनीत शिष्य ही भयमुक्त होते है।
विधि ने दो भ्रम पैदा किये है- कंचन और कामिनी। इनके चक्कर में फसा ये संसार, भ्रमित हो रहा है। जो कंचन और कामिनी से अनासक्त है, वह परमात्मा का रूप होता है। साधु, आचार्य, गुरु और महात्मा वही होता है जो कंचन और कामिनी के त्यागी होते है। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसे त्यागी, ज्ञानी गुरु, विशेष भाग्य से ही प्राप्त होते है।
गुरु के दर्शनों, प्रवचनों से लाभ उठाना चाहिए। एक कथानक के माध्यम से आचार्यप्रवर ने फ़रमाया - एक गाँव में एक ज्ञानी, त्यागी सन्यासी आए। सबकी मनोकामना पूर्ण करने के लिए सबको एक - एक वरदान दे रहे थे। एक किसान की पत्नी ने रूप का वरदान माँगा, वह रूपवती बनकर खेत में पहुंची। किसान को पता चला तो गुस्से में आ गया और सन्यासी से, अपनी पत्नी को गधी बनाने का वरदान माँगा। पत्नी गधी बन गयी। पुत्र आया तो दुखी हुआ और सन्यासी से अपनी माँ के लिए मूल - रूप का वरदान मांगा। किसान की पत्नी फिर से औरत बन गयी। तीन वरदान निरर्थक हो गए। एक दुसरे किसान ने, जो कि गरीब भी था और आँखों से अन्धा था, पर ज्ञानी था, ने वरदान माँगा की - मैं अपने पौत्र को सोने - चांदी के बर्तनों में खीर जलेबी खाता हुआ, देखुं। सन्यासी ने तथास्तु कहा। एक वरदान में कितना कुछ पा लिया। सो गुरु से अधिकाधिक धर्मलाभ लेना चाहिए।
पूज्य गुरुदेव ने अनेक लोगों को सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति का उपदेश देते हुए, संकल्पों को स्वीकारने की प्रेरणा दी। अनेक व्यक्ति संकल्प ग्रहण करने के लिए खड़े हुए।
श्री देवेन्द्र सिंह जी गुर्जर ने स्वागत करते हुए अपने भाषण में कहा - गुरुदेव आपका इस धरती पर अभिनन्दन है, क्यूंकि आप जैसे महापुरुषों का इस क्षेत्र में पधारना, अति आवश्यक है, क्योंकि यहाँ के लोग हिंसक और क्रूर प्रकृति के है, कानून को हाथ में लेने में संकोच नहीं करते। यहाँ के दस्यु भी प्रसिद्ध रहे है।
ग्वालियर महिला मंडल ने गीत की प्रस्तुति की।
रतलाम से आगत उपासक श्री सचिन कासबा ने भी रतलाम पधारने की अर्ज की।