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विनय, श्रुत, तप और आचार से चित्त समाधि प्राप्त: आचार्य श्री महाश्रमणजी

०9 फर. (JTN). आज पूज्यप्रवर का प्रवास गुलामीपुर के विधि प्राथमिक विद्यालय में हुआ. पूज्यवर ने फ़रमाया कि- व्यक्ति गुलामी में भी स्वयं का सम्राट बनने का प्रयास करें. आधि, व्याधि व उपाधि चित्त की समाधि में बाधक है. इनसे मुक्त होकर आदमी समाधि को प्राप्त हो सकता है.
दसवेआलियं के नवम् अध्याय में वर्णित विनय, श्रुत, तप एवं आचार पर परमपूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि- विनय से चित्त में समाधि पैदा होती है. विनय होने से स्वयं भी समाधि अनुभव होती है एवं दुसरे लोग भी सम्मान करते है, इस कारण भी शांति का अनुभव रहता है. कषाय मंद या बन हो, तभी विनय आता है. विद्या भी विनय से सुशोभित होती है. जो विनयशील होता है, वृद्धों के प्रति विनीत होकर सेवा करता है, उसका आयुष्य, विद्या, बल और यश वृद्धिगत होता है.

श्रुत ज्ञान आराधन से भी चित्त समाधि मिलती है. हम ग्रंथों को पढ़ें, पुनरावर्तन करें, प्रश्न करें, अनुप्रेक्षा करें. जो भक्ति भाव से श्रुत की उपासना करते है वे जिन भगवान की उपासना करते है. श्रुत का स्त्रोत केवलज्ञानी अर्हत भगवान् ही है. श्रुत का स्वाध्याय करते करते समस्या का समाधान मिल सकता है, नया अवबोध होता है, शांति की प्राप्ति होती है. ज्ञान प्रकाश करने वाला होता है.

तपस्या से भी चित्त समाधि मिलती है. खाना एक प्रकार का भोग है.
तपस्वी इस भोग से मुक्त रहता है. आहार करने में लगने वाला समय बच जाता है और यह समय साधना में लगाया जा सकता है. तपस्या इहलोक प्रसिद्धि या परलोक प्रसिद्धि के लिए नहीं अपितु निर्जरा के लिए करनी चाहिए.

आचार से भी समाधि प्राप्त होती है. सम्यक आचारण व्यक्ति का पहला धर्म है. जो चरित्रहीन है, अनैतिक हो तो उस आदमी का कोई मूल्य नहीं. जो निश्छल, सरल और नैतिक है तो उसकी पूज्यता होती है.

कार्यक्रम में समणी चारित्रयशाजी ने “जो भीतर में ही भ्रमण करें, वो संत पुरुष कहलाता है” गीतिका का संगान किया. मार्ग सेवा में समागत तेयुप लूणकरणसर के युवकों ने “करें वंदना महाश्रमण महाप्राण की” गीतिका का संगान किया.
संवाद व फोटो: राजू हीरावत, प्रस्तुति: जैन तेरापंथ न्यूज़

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