चंडीगढ,20 मार्च, आज संसार भोग विलास के साधनो को जुटाने मे लगा हुआ हेेै संत
मुनियो का मत है कि संसार मे रहते हुए इंसान को सब प्रकार की वस्तुओ चाहिए
बशर्ते कि वह जो असली मकसद है उसे ना भूल जाए। क्योकि जिस उददेश्य के लिए यह
मानव चोला मिला है यह बार बार मिलने वाला नही है, आज इंसान घंमड मे चूर है कि
वह यह सब भूल गया है कि वह एक मुसाफिर है जो संसार के अंदर विचरण हो रहा हेै
वह सब यात्री है जिनका भी स्टेशन आज जाता है(मौत का बुलावा) वह उतर जाता है,
इसलिए हे इंसान तो अब भी संभल जा, आज इंसान सोचता है कि पूजा पाठ करने से मन
को शुद्धि मिलती है लेकिन जिस पिता की हम संतान है अर्थात जो हमे बनाने वाला
है उसके बच्चो के साथ हम दुव्र्यवहार कर क्या पिता को खुश कर सकते है कदापि
नही। ये शब्द मनीषी संत मुनिश्रीविनयकुमारजी आलोक ने कहे।
मनीषी श्री संत ने कहा- जब तक जीवन के अंदर प्रेम रूपी रस है। जब तक जीवन
में आंनद रूपी रस बना रहता है तब तक जीवन में फूल खिलते रहते हैं। रस के सूखते
ही जीवन नष्ट हो जाता है। हमें प्रयास करना है कि हमारे जीवन में प्रेम की कमी
न हो, क्योंकि प्रेम ही है जो मनुष्य को जीवित रखता है। इस संसार को जब कोई
व्यक्ति प्रेम कर सकता है तो आप क्यों नहीं कर सकते हो। आपका मन विषाद और
अप्रेम से घिरा है, जिस कारण आप किसी से प्रेम नहीं कर सकते। अहंकार मनुष्य की
नकारात्मक प्रवृत्ति है। अहंकार अधिकतर शक्ति, धन और सत्ता के कारण उत्पन्न
होता है, परंतु कभी-कभी कुछ मनुष्यों में अहंकार उनके सकारात्मक भावों जैसे
ईमानदारी, सदाचार और मेहनती होने के कारण भी पैदा हो जाता है। ये दोनों प्रकार
के अहंकार मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में बाधक साबित होते हैं। अहंकार के
कारण मनुष्य स्वयं यानी ब्रह्म के अंश से एकाकार नहीं हो पाता और इसके कारण वह
समाज में भी अलग पड़ जाता है। समाज और स्वयं की उपेक्षा के कारण उसके मन में
नकारात्मक सोच जाग्रत हो जाती है। मनुष्य केवल अहंकार में जीता है। वह प्रेम
कर सकता है, लेकिन अहंकार के कारण वह किसी से प्रेम नहीं कर सकता। घृणा,
ईष्र्या और द्वेष में आसानी फंस जाता है। ऐसा लगता है कि उसके अंदर का रस सूख
गया है। कोई दूसरा अगर उसे क्षति पहुंचाता है तो यह बात समझ में आती है, लेकिन
जब वह स्वयं अपने सुंदर शरीर को रौंदने लगता है, उसका नाश करने लगता है तो
बड़ा आश्चर्य होता है। सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अहंकार
रहित होना चाहिए और सम स्थिति की प्राप्ति के लिए ही अष्टांग योग को अपनाया
जाता है
मनीषी श्री संत ने आगे फरमाया-संसार में जितने भी महान व्यक्तित्व हुए हैं,
अपार कष्ट सहने के बाद ही समाज में प्रतिष्ठित हुए हैं। पूर्ण तन्मयता से
कार्य करने का अवसर तलाशने वाले एक दिन अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुंचते हैं।
सम्यक अवसर पाए बगैर योग्यता और क्षमता का सदुपयोग नहीं हो पाता। प्रशंसा करना
एक साधना है। प्रशंसा करने में निर्मल हृदय की आवश्यकता होती है और व्यक्ति को
उदार होना पड़ता है। इतिहास रचने वाले लोग भीड़ से अलग रहते हैं और दूसरों की
प्रशंसा उनकी विशेषता होती है। ऊंचाई पर स्थान रिक्त रहता है। मुक्त प्रशंसा
करने वालों की वाणी पर सरस्वती का वास रहता है। प्रशंसा और चापलूसी ये दो शब्द
हैं, जिनके अर्थ भी अलग-अलग हैं। चापलूसी में स्वार्थ का भाव रहता है, किसी
दूसरे शख्स से अपनी स्वार्थपूर्ति की कामना रहती है। वहीं प्रशंसा निस्वार्थ
होती है। इसलिए हृदय से खुलकर किसी व्यक्ति के नेक कार्यो की प्रशंसा करें।
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