चंडीगढ,17 मार्च, (JTN), मानव स्वभाव मे विनम्रता धीरे धीरे विकसित होती है जब वह जडे जमा लेती हे तो फिर वह आदत बन जाती है। सज्जनता का प्रथम सोपान विनम्रता से शुरू होता है। समान आयु के यहां तक छोटो के साथ भी वार्तालाप और व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए जैसे उनके महत्व को स्वीकार कर सम्मान दिया जा रहा हेै। इसका प्राथमिकता उपचार यह है कि वाणी से मधुर बचन कहे जाए। मनुष्य सम्मान चाहता है। आगन्तुक के आने पर उसे छोटे बडे का ध्यान रखे बगैर नमस्कार कहना बैठने का असान देना और आगमन की प्रसन्नता प्रकट करते हुए समाधान पूछना। ये शब्द मनीषी संत मुनिश्रीविनयकुमारजी आलोक ने अणवु्रत भवन सैक्टर 24 सी के तुलसीसभागार मे कहे।
मनीषी श्री संत ने आगे फरमाया- लोक व्यवहार की दृष्टि से भी शिष्टाचार का पालन आवश्यक है। शिष्टाचार के पालन से शिष्टाचार भी समय आने पर बहुत बडा काम करता है और प्रशंसायुक्त प्रचार करता है। ईश्वर से हम छोटी छोटी वस्तुएं मांगते रहते हैं क्योकि जितनी हमारी सोच होती है उतना ही हम मांग पाते हैं लेकिन ईश्वर जो हो रहा है, जो हो गया और जो होने वाला है सबका ज्ञाता होता है वह हमे पता नही क्या और कितना बडा देना चाहता है लेेकिन हम थोडा मांग जाते है। इसलिए जो सबको देने वाला है तो उसी पर सबकुछ छोड दिया जाए कि हे ईश्वर जो तू देना चाहता है वह दे दे। ईश्वर हमे क्या पता हमे समुद्र देना चाहता है और हम हाथ मे चम्मच लेकर खडे हो।
मनीषी श्री संत ने कहा- संन्यासी होना एक साधारण घटना है। संन्यासी किसी क्षेत्र के अंतर्गत नही समाता। वह तो विराट का पुजारी है। संन्यासी जीवन एक अतिदुर्लभ और अमूल्य जीवन है। संन्यासी का जीवन त्याग और तप का जीवन होता है। उसका आत्म तेज सहज आर्कषण पैदा करता है। वह सदा, निडर, निर्भीक और आत्मविश्वास से लबरेज होता है। इसकी हुंकार समाज और विश्व को हिलाकर रख देती है। संन्यासी का जीवन संघर्ष का जीवन होता है। उसे इस संसार मे कुछ भी पाना नही होता संसार उसके लिए एक मुट्ठी राख के समान है। संघर्षो के पल मे वह निखरता है और वैराग्य मे संवारता है। एक आदर्श संन्यासी का कोई धर्म नही होता। वह सभी प्रकार के धर्माे से ऊपर होता है। उसे कोई भी वस्तु परिस्थति और व्यक्ति नही लुभा सकता। वह सत्य, ज्ञान और आनंद सच्चीदानंद की दिव्य धारा मे सदा भाव से बहता चलता है। आज संन्यास का मतलब पलायन हो गया है कर्तव्यो से पलायन। अनेक बाबा खाली बैठे निष्काम भक्ति का राग गाते हुए दिखाई देते है। संन्यासी की अवधारणा भले ही समाज मे आज कम या नगव्य दिखाई देती है फिर भी जिस समाज ने एेसी उदात्त परिकल्पन की हो वह समाज और राष्ट्र इनमे रिक्त कैसे रह सकेगा क्योकि अपनी सांस्कृति और समाज को संन्यासी ही दिशा देते रहे है। मनीषी श्री संत ने अंत मे फरमाया- आज बुद्धि की समस्त चेष्टाएं संसार की ओर अग्रसर हो चुकी हैं। ठगी का बाजार गर्म है। वे इस बात को भूल गए हैं कि हम किस देश के रहने वाले हैं, जहां बुद्धि का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर रहा है। बुद्धि को संसार में उतना ही प्रयुक्त किया जाता रहा है जिससे सही जीवनयापन हो सके। अब पुन: बाहर की दौड़ पर लगाम लगाकर अपने यथार्थ सुख की प्राप्ति की ओर बुद्धि को ले जाना होगा। तभी समाज और पूरे विश्व को शांति व आनंद की राह पर लाया जा सकता है।
मनीषी श्री संत ने आगे फरमाया- लोक व्यवहार की दृष्टि से भी शिष्टाचार का पालन आवश्यक है। शिष्टाचार के पालन से शिष्टाचार भी समय आने पर बहुत बडा काम करता है और प्रशंसायुक्त प्रचार करता है। ईश्वर से हम छोटी छोटी वस्तुएं मांगते रहते हैं क्योकि जितनी हमारी सोच होती है उतना ही हम मांग पाते हैं लेकिन ईश्वर जो हो रहा है, जो हो गया और जो होने वाला है सबका ज्ञाता होता है वह हमे पता नही क्या और कितना बडा देना चाहता है लेेकिन हम थोडा मांग जाते है। इसलिए जो सबको देने वाला है तो उसी पर सबकुछ छोड दिया जाए कि हे ईश्वर जो तू देना चाहता है वह दे दे। ईश्वर हमे क्या पता हमे समुद्र देना चाहता है और हम हाथ मे चम्मच लेकर खडे हो।
मनीषी श्री संत ने कहा- संन्यासी होना एक साधारण घटना है। संन्यासी किसी क्षेत्र के अंतर्गत नही समाता। वह तो विराट का पुजारी है। संन्यासी जीवन एक अतिदुर्लभ और अमूल्य जीवन है। संन्यासी का जीवन त्याग और तप का जीवन होता है। उसका आत्म तेज सहज आर्कषण पैदा करता है। वह सदा, निडर, निर्भीक और आत्मविश्वास से लबरेज होता है। इसकी हुंकार समाज और विश्व को हिलाकर रख देती है। संन्यासी का जीवन संघर्ष का जीवन होता है। उसे इस संसार मे कुछ भी पाना नही होता संसार उसके लिए एक मुट्ठी राख के समान है। संघर्षो के पल मे वह निखरता है और वैराग्य मे संवारता है। एक आदर्श संन्यासी का कोई धर्म नही होता। वह सभी प्रकार के धर्माे से ऊपर होता है। उसे कोई भी वस्तु परिस्थति और व्यक्ति नही लुभा सकता। वह सत्य, ज्ञान और आनंद सच्चीदानंद की दिव्य धारा मे सदा भाव से बहता चलता है। आज संन्यास का मतलब पलायन हो गया है कर्तव्यो से पलायन। अनेक बाबा खाली बैठे निष्काम भक्ति का राग गाते हुए दिखाई देते है। संन्यासी की अवधारणा भले ही समाज मे आज कम या नगव्य दिखाई देती है फिर भी जिस समाज ने एेसी उदात्त परिकल्पन की हो वह समाज और राष्ट्र इनमे रिक्त कैसे रह सकेगा क्योकि अपनी सांस्कृति और समाज को संन्यासी ही दिशा देते रहे है। मनीषी श्री संत ने अंत मे फरमाया- आज बुद्धि की समस्त चेष्टाएं संसार की ओर अग्रसर हो चुकी हैं। ठगी का बाजार गर्म है। वे इस बात को भूल गए हैं कि हम किस देश के रहने वाले हैं, जहां बुद्धि का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर रहा है। बुद्धि को संसार में उतना ही प्रयुक्त किया जाता रहा है जिससे सही जीवनयापन हो सके। अब पुन: बाहर की दौड़ पर लगाम लगाकर अपने यथार्थ सुख की प्राप्ति की ओर बुद्धि को ले जाना होगा। तभी समाज और पूरे विश्व को शांति व आनंद की राह पर लाया जा सकता है।
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