चंडीगढ,17 मार्च, जो नीच प्रवृत्ति के लोग दूसरो के दिलो को चोट पहुंचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते है दूसरो की बुराई करने मे खुश होता है। अपने वचनो से कभी कभी अपने ही वचनो द्वारा बिछाये जाल मे स्वंय ही घिर जाते है और उसी तरह नष्ट हो जाते जिस तरह रेत के टीले के भीतर बांबी समझ कर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।ये शब्द मनीषी संत मुनिश्रीविनयकुमारजी आलोक ने अणवु्रत भवन सैक्टर 24 सी के तुलसीसभागार मे कहे।
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मनीषी श्री संत ने आगे फरमाया- मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बुद्धि भी कर्मफल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्धान और सज्जन पुरूष विवेकपूर्णत से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं। ऐसा धन जो अत्यत पीडा धर्म त्यागने और बैरियो के शरण मे जाने से मिलता है वह स्वीकार नही करना चाहिए। धर्म, धन , अन्न, गुरू का वचन, औषधि हमेशा संग्रहित रखनी चाहिए। जो इनको भलीभांति सहेजकर रखता है वह हमेशा सुखी रहता है। बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरो के हाथ मे देने से समय पर न विद्या काम आती है न धन।
मनीषी श्री संत ने अंत मे फरमाया-परिवर्तनशील और सारहीन संसार में मानव जीवन में भावों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। व्यक्ति के हृदय की मूक अभिव्यक्ति का नाम भाव हैए जो व्यक्ति के अंतरूकरण की प्रमुख मनोवृत्तियों में से एक है। भावों के माध्यम से ही व्यक्ति ईश्वरीय सत्ता से सीधे जुडने की सामथ्र्य अर्जित कर सकता है। ईश्वरीय प्रेम की उत्पत्ति उसकी आस्थाए श्रद्धा और विश्वास के आधार पर ही होती है। व्यक्ति के भाव ही उसकी भावनाओं के आधार होते हैं। वस्तुतरू भाव ही मन ,बुद्धि,कर्म और सत्कार के सोपानों से होता हुआ भावना का सृजन करता है। भाव ही भक्त को भगवान तक पहुंचाने की सामथ्र्य रखता है। भाव के बिना कोई भी व्यक्ति भगवान की प्राप्ति कर ही नहीं सकता। भाव केवल बुद्धि का ही विषय न होकर शुद्ध अंतरूकरण का विषय भी हैए किंतु इस भौतिकतावादी संसार में अधिकांश व्यक्ति धन। दौलत के पीछे भागता रहता है। इस कारण उनका भाव से परिचय ही नहीं हो पाता। अभावों और प्रभावों से ग्रस्त व्यक्ति ही त्रस्त रहते हैं। अभावों में तरसे हैं, तपे और प्रभावों में दबे हैंए तपे हैं। दोनों ही स्थितियों में तनाव से घिरे रहना उनकी विवशता है। परिणामतरू अधिकतर व्यक्तियों का जीवन तनाव में ही व्यतीत होता है। भाव के आश्रय से ही प्रभु के चरणों तक पहुंचा जा सकता है। जब भाव से व्यक्ति का परिचय हो जाता है, तब उसके अभावों के पहाड टूटकर चूर्ण बन जाते हैं और प्रभाव दबावहीन हो जाते हैं। ईश्वर की आराधना करने वाले इसी भाव भूमि पर आश्रित होकर सांसारिक दुखों और माया। मोह से मुक्ति हासिल कर पाते हैं तथा पारलौकिक दिव्यता की अनुभूति करते हैं। भक्ति के लिए भाव सर्वोपरि और सर्वस्व होता हैए क्योंकि भाव ही व्यक्ति के मनए बुद्धि और कर्म पर प्रभाव डालता है। भाव ही भगवत्प्राप्ति के पथ का पहला सोपान है। भाव के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती। समर्पण। भाव से ही भक्त की भगवान के आश्रय की सीमा निर्धारित होती है। श्गीताश् में एक स्थान पर कहा गया है श्जो समर्पण का आश्रय ले लेता हैए उसका प्रभु कभी त्याग नहीं करते हैं। ऐसा इसलिएए क्योंकि शरणागत की रक्षा करना प्रभु की चिरंतन प्रतिबद्धता है। वस्तुतरू भाव की शक्ति अद्भुत और विलक्षण है।
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