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भिक्षु अभिनिष्क्रमण दिवस विशेष

जहाँ श्रद्धा बोलती है ; वहाँ शब्द मूक हो जाते हैं 

जब जब धर्म में शिथिलता आती है, जब जब समाज अंध रूढ़ियों की जकड़ से आक्रांत हो जाता है, तब तब समाज में भटकी हुई धार्मिक व्यवस्था को सही मार्ग पर अवस्थित करने के लिए नई चेतना व स्फुरणा का संचार करने वाला, समाजोद्धारक, क्रांतिकारी महापुरुष अवतरित होता है।
आचार शिथिलता के विरुद्ध जैन परंपरा में समय समय पर क्रांति होती रही है। इसी क्रम में आचार्य भिक्षु की धार्मिक क्रांति का एक विषिष्ट स्थान है।
बात है विक्रम की 19वीं शताब्दी की वह ऐसा समय था जब भारतीय जन- मानस अंध परम्पराओं तथा रुढियों से परिव्याप्त होकर ह्रासोन्मुख हो चुका था। धार्मिक शिथिलता ने अपने पैर पसार लिए थे। धार्मिक संगठन वृद्धावस्था से जर्जर हो लड़खड़ा रहे थे। इस परिपेक्ष्य में धार्मिक क्रांति के बीज क्रांत दृष्टा आचार्य भिक्षु के अंतर्मन में अंकुरित हुए। सम्यग आचार और विचार की पुनः स्थापना हेतु उन धार्मिक उन्माद की विषम सामाजिक स्थितियों में भी आचार्य भिक्षु ने सत्य के विषम व दुर्गम मार्ग को चुना। और अपनी युग प्रतिबोधक क्षमता के आधार पर  समाज में धर्म की नई परिभाषा देकर सोये समाज में धर्म के मूल बीजों का वपन किया। आचार्य भिक्षु में युग को समझने की विलक्षण प्रतिभा थी उन्होंने उस समय में युग की मांग को समझा था जिस समय अंधकार घना था। उन्हें कोई रास्ता दिखने वाला था तो आगम के वे अनमोल "आर्ष सूत्र" जिनके बल पर वे भोजन, कपड़े, आश्रय की चिंता किये बिना सत्य की राह पर निकल पड़े। "मर पूरा देस्याँ, आत्मा रा कारज सार स्यां"- ये शब्द उसी के मुंह से निकल सकते हैं जिसकी सत्य में प्रबल आस्था हो, जिसको मौत का भय नहीं अपितु साधना में विश्वास हो। ये शब्द आज भी प्रबल परिचायक हैं उस चेतना के और आज भी श्रोताओं के तन में सात्विक ऊर्जा का संचार करते हैं। व्यक्ति को सहारा मिलता है धर्मपथ पर अग्रसर होने का। 
जब भीखण जी द्वारा भगवान महावीर के वचनों पर आधारित सत्य शोध का विनम्र अनुरोध गुरु ने पंचम अर की दुहाई देते हुए दरकिनार कर दिया तब  चैत्र शुक्ला 9 विक्रम संवत 1817 को आत्म कल्याण के लिए संघ से सम्बन्ध विच्छेद कर आत्मोत्थान की दिशा में अभिनिष्क्रमण किया।

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