26 अप्रैल 2015, तेरापंथ भवन, वीरगंज, नेपाल, JTN. साध्वी प्रमुखाश्री जी ने नेपाल में आई प्राकृतिक आपदा के अगले दिन आपदाओं के बारे में पूरा विवेचन करते हुए फरमाया कि इन हादसों में एक साथ इतने लोग मारे जाते हैं उसका कर्मशास्त्रीय कारण क्या हो सकता है? उन्होंने कहा कि जब किसी कार्य में अनेक लोगों की सहभागिता रहती है। और उनकी विचारधारा एक जैसी होती है। तो वह सामूहिक रूप में जिस कर्म का बंधन होता है, हालाँकि बंधन सबका अलग अलग होता है, लेकिन एक प्रेरणा से एक वातावरण से, एक अध्यवसाय से बंधन होता है तो कभी कभी ऐसा भी योग होता है कि वह एक साथ उदय में आ जाता है। ऐसा भी हो सकता है सबके अपने अपने कर्म बांधे हुए हैं लेकिन एक निमित से होते समय उदीरणा होके एक साथ उदय में आ गए। तो इस बारे में निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह निश्चित है कि जो भी होता है अपने कर्मों का फल होता है। अब आपदाएं कितने प्रकार की होती हैं? देवसिक विपत्ति भी हो सकती है, मनुष्येतिक विपत्ति भी हो सकती है, पशु पक्षी तिर्यंच आदि से भी कष्ट मिल सकते हैं। कुछ आपदाएं होती हैं- प्राकृतिक आपदाएं। प्राकृतिक आपदायें क्यों आती है? प्रकृति तो संतुलित रहनी चाहिए। क्यों कि जैसे जीव सृष्टि का एक अंग है वैसे ही प्रकृति एक अंग है। प्रकृति के असंतुलन पर अगर हम गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि ऐसे तो सृष्टि का हर तत्व संतुलित है। लेकिन असंतुलन होता है क्यों कि जब प्रकृति का अति मात्र में दोहन होने लगता है। जब पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है तो उससे प्रकृति प्रभावित होती है। प्रकृति प्रभावित होती है तो असंतुलित हो जाती है। इकोलॉजी का एक सिद्धान्त है की वृक्ष का एक पत्ता भी टूटता है तो उसका सभी पर प्रभाव होता है। पर वह इतना सूक्ष्म होता है कि हमें पता नहीं चलता। जैसे भूकंप जैसी घटनाओं का सबको पता चल जाता है। पर एक पत्ता भी टूटता है तो उसका प्रभाव अव्यक्त रूप में सभी पर होता है। ईकोलोजी का सिद्धांत इतना सूक्ष्म है इतना वैज्ञानिक है कि सब एक दुसरे से प्रभावित होते हैं। यद्यपि मनुष्य प्रकृति का दोहन हमेशा से करता रहा है। क्यों की इसके बिना उसका काम नहीं चलता। मनुष्य की सारी अपेक्षाएं प्रकृति से पूर्ण होती हैं। सबसे अधिक पदार्थों का उपयोग करने वाला जीव इस संसार में मनुष्य है। पशु पक्षियों की अपेक्षाएं सीमित हैं। मनुष्य की आवश्यकताएं बहुत ज्यादा हैं। एक समय था भगवान् ऋषभ के युग से पहले मनुष्य की अपेक्षायें इतनी सीमित थी की उसे खेती भी करने की जरुरत नहीं थी। जो कुछ वृक्षों से मिलता उस से उनका काम चल जाता। लेकिन जैसे जैसे आवश्यकताएं बढ़ी और एक कारण यह भी रहा कि जो वृक्ष फल देते थे उनमे कमी आ गई। उनकी मात्रा, गुणवत्ता में भी कमी आई। तो मनुष्य में आपस में छीना झपटी होने लगी, संग्रह की भी भावना बढ़ी। धीरे धीरे मनुष्य की आवश्यकताएं इतनी असीम हो गई है कि भगवान् महावीर को कहना पड़ा की इच्छाएं आकाश के सामान अनंत हैं। जैसे आकाश का कोई अंत नहीं उसी प्रकार मनुष्य की इच्छाओं का कोई अंत नहीं। मनुष्य हमेशा ऊपर वाले को देखता है अपने से नीचे वाले को नहीं देखता। सारी सृष्टि का ऐश्वर्य उसे प्राप्त हो जाये तो भी संतोष नहीं होता। इतनी विशाल है मनुष्य की इच्छाएं। ऐसी स्थिति में वह अति मात्र में प्रकृति का दोहन करता है। इधर तो जंगल के जंगल कटवा रहा है, इधर धरती का अत्यधिक खनन हो रहा है। लोग गोबर की झोंपड़ी में भी रहते थे। उनसे भी जीवन चलता था। आज महलों की होड़ लगी है। तो इतना अत्यधिक मात्रा में धरती का खनन होगा तो क्या होना है? धरती कांपती है। असंतुलन होता है। धरती के नीचे और है क्या? ज्वालामुखी ही तो है। इसी प्रकार नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है, उद्योग धंधों का गन्दा रासायनिक कचरा नदियों में बहा दिया जाता है। लोगों को पीने को पानी नहीं मिलता है। प्रदूषित पानी पीना पड़ता है। तो इस प्रकार प्रकृति जब कुपित हो जाती है, तो ऐसे हादसे होते हैं। तो वृक्षों की कटाई के कारण कहीं अतिवृष्टि हो जाती है, कहीं अनावृष्टि, कहीं तूफ़ान, बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। यह सब प्रकृति की लीलाएं हैं। ऐसा ही हादसा यह और हो गया। तो ऐसा सोचना चाहिये कि मनुष्य क्या सोचता है और क्या हो जाता है। कितनी कल्पनायें करता है कितने सपने संजोता है। किसलिए? केवल अपने सुख सुविधा के लिए। तो अगर मनुष्य जो चिंतनशील है, विवेकशील है, जिसके पास ज्ञान है, जो कुछ कर सकता है पूरी दुनिया और मनुष्य जाति को सामने रख कर सोचे तो अपना संयम कर सकता है। प्रकृति को भी संतुलित रख सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होता है तो ऐसे हादसे होते हैं। वह सोचता कुछ है होता कुछ है। इसका मुआवजा उसे भी भोगना पड़ता है।
इसी सन्दर्भ में साध्वी प्रमुखा श्री जी ने फरमाया कि परम पूज्यप्रवर का पदार्पण हुआ काठमांडू में तो कितनी खुशियां थी काठमांडू वासियों में कि वहां पहला इतिहास बना है। जिस देश में तेरापंथ के 250 वर्ष के इतिहास में पहली बार कोई आचार्य पधारे हैं। कितनी ख़ुशी थी सब में पल भर में ही अचानक दुःख आ गया। तो पल का भी भरोसा नहीं। तो व्यक्ति को धर्म का जीवन जीना चाहिए क्यों की क्षण का भी कोई भरोसा नहीं।
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