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संवेदना, करुणा, दया होने से होती है सेवा- आचार्य श्री महाश्रमण



Aacharya shri Mahashraman ji addressing the huge gathering at The Capital of Nepal, Kathmandu while Non Violence March (Ahimsa Yatra)

पूज्यप्रवर ने ली परीक्षा; कहा शिविरार्थी भी ले दीक्षा
9 मई 2015, जैन भवन काठमांडू, नेपाल। JTN. पूज्यप्रवर ने उपस्थित विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए फ़रमाया कि जीवन में दया और करुणा का गुण होना चाहिए। किसी की हिंसा करना ,कष्ट देना, दुःख देना जीवन का अवगुण होता है। आदमी को किसी का दुःख देखकर ख़ुशी नहीं मनानी चाहिए। सभी को चित्त समाधि मिले ऐसा प्रयास करना चाहिए। दयावान आदमी के पाप कम लगता है। निर्दयी आदमी के पाप ज्यादा लगने की संभावना रहती है। उन्होंने कहा व्यक्ति के भीतर दया कि भावना होती है तो सेवा होती है। संवेदना, करुणा होती है तो सेवा होती है। शरीर की सेवा लौकिक सेवा है और किसी की आत्मा का कल्याण कर देना बड़ी सेवा है।
देहानुकम्पा- पूज्यवर ने कहा कि आचार्य भिक्षु ने दया, अनुकम्पा पर विशलेषण किया था न। एक देहानुकम्पा व एक आत्मानुकम्पा होती है। किसी असंयमी के शरीर की सेवा करना भी दया है। भूखे की सेवा करना, कम्बल, तिरपाल, गृहस्थों को चित्त समाधि देना भी सेवा का काम है। इसका भी महत्व है। वरना कौन किसकी सेवा करता है। 
आत्मानुकम्पा: लोगों में लौकिक दया भी बहुत है। एक जगह कष्ट आता है तो दूसरे देश के लोक भी सेवा करने आ जाते हैं। बिना दया के सेवा नहीं हो सकती। यह देहनुकम्पा है। और किसी को नशे, हिंसा, व्याभिचार, अनैतिकता के त्याग करवा देना आत्मानुकम्पा है। आध्यात्मिक सेवा करने से उपकारी व उपकृत दोनों मोक्ष की ओर आगे बढ़ते हैं।
पूज्यवर का मिला प्रशिक्षण - पूज्यवर ने संस्कार निर्माण शिविर में संभागी बने बच्चों से प्रवचन के पूर्व कुछ जिज्ञासाएं की। इन बच्चों द्वारा कुछेक का उत्तर नहीं दिया जा सका तो पूज्यवर ने उनका उत्तर समाहित किया। पूज्यवर द्वारा इस प्रकार से प्रशिक्षण मिलने पर बच्चों में उत्साह वर्धन हुआ। तत्पश्चात पूज्यवर ने बच्चों को संबोधित करते हुए कहा कि- मेरा शिविर के संभागी बच्चों से कहना है कि वे चलते समय नीचे देख कर चलें। चलने के साथ अहिंसा व दया की साधना भी हो जाएगी। चींटी में भी प्राण है। जैसे हमें कष्ट होता है, वैसे ही चींटी को भी होता है।
शिविरार्थी भी बने साधू - पूज्यवर ने शिविरों में अपनी सेवा देने वालों को साधुवाद देते हुए कहा ने कहा की ज्ञान के शिविरों में आध्यात्मिक योगदान भी देने से ग्रहस्थो द्वारा आध्यात्मिक सेवा हो जाती है। पूज्यवर ने प्रेरणा देते हुए कहा कि वे बच्चे भाग्यशाली होते हैं, जिनके मन में दीक्षित होने की भावना आ जाती है। दीक्षा विशेष क्षयोपशम से ही होती है। हमारे साथ छोटे छोटे संत सतियाँ हैं। और ये बाल मुनित्व अवस्था में नेपाल भी आ गए हैं। बाल्यावस्था में साधू बन जाने का मतलब है- आत्मा की उज्जवलता को बरक़रार रखना और उसे अधिक उज्वल बनाना। यह इस जीवन का ही नही अनंत काल का भाग्य होता है, जो साधू बनने की भावना होती है। शिविर के बच्चों में भी साधू बनने की भावना आए।
पड़दादा से बड़ा संत पोता- व्यक्ति पापा, दादा, पड़दादा बन जाता है। यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। साधु बनना बड़ी बात है। पोते के साधु बनने पर दादा, पड़दादा का सिर भी पोते के चरणों में झुक जाता है।
मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी ने शिविर में संभागी बने बच्चों को प्रेरणा देते हुए कहा कि शिविर ऐसा माध्यम है जिसमें बच्चों को सहज ही संस्कारी बनने का मौका मिलता है। मुख्य नियोजिका जी ने पैंसिल के गुणों का उदाहरण देते हुए बच्चों को आत्मा के कल्याण व जनोपयोगी बनने की प्रेरणा दी। यह शिविर मुनि जितेन्द्रकुमार जी की आध्यात्मिक देख रेख में आयोजित हुआ। आप प्रवचन कार्यक्रम में मुनि श्री ने शिविर से संबोधित संक्षिप्त जानकारी दी। शिविरार्थी बच्चों द्वारा गीतिका का संगान किया गया। शिविर संभागी हर्षित दुगड़, नंदनी, जानवी नाहटा ने विचाराभिव्यक्ति दी।
आ.म.प्र.व्य.स काठमांडू के अध्यक्ष लोकमान्य गोलछा, शिविर संयोजक ललित नाहटा, मधु दुगड़ ने विचारों की प्रस्तुति दी। परमपूज्य आचार्यप्रवर द्वारा रचित गीत "मानव जीवन पाकर तुमने क्या किया " की कन्या मण्डल द्वारा प्रस्तुति दी गई। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया ।
People Listening to H.H Aacharya shri Mahashraman ji at Kathmandu


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