17 मई
2015, काठमांडू , परमपूज्य महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण ने फरमाया कि आचार के प्रति
निष्ठा आत्म निष्ठा का भाव होना साधु के लिए प्राणवत्ता की बात है। चलते समय मौन रहना,
अच्छी साधना, संयम, अहिंसा, दया का प्रयोग है, मौन का अभ्यास है। बातों से रास्ता तो
आसानी से कट सकता है, पर हमारा लक्ष्य रास्ता काटना नही है। साधना करना है। इसलिए चलते
चलते बातों से बचना चाहिए। गृहस्थ भी इस बात पर ध्यान दें।
पूज्यवर ने प्रसंगवश कहा कि आचार्य के लिए बड़े साधु तिक्खुतो से नमस्कारणीय
होते हैं। सम्मान की दृष्टि से रत्नाधिक मुनि आचार्य का सम्मान करते हैं। आचार्य रत्नाधिक
मुनियों को स्वामी कहते हैं। स्वामी शब्द का प्रयोग करते हैं। छोटे संतो को स्वामी
नहीं कहना चाहिए। छोटे संतो को स्वामी कहने से बड़े संतो का असम्मान हो जाता है। हमें रत्नाधिकों के
प्रति सम्मान रखना चाहिए। रत्नाधिक मुनि हमारे लिए माननीय, पूज्य होते हैं। बड़ों के
प्रति विनय व सम्मान करना चाहिए। आचार्य अधिकारी
होते हैं इसलिए वे परम सम्मानीय होते हैं। इनका निर्देश भी परम सम्मानीय होता है। यह
हमारे संघ की व्यवस्था है। इसका हमें अनुसरण करना चाहिए। पूज्यवर ने समणी शुक्ल प्रज्ञा
व समणी उन्नत प्रज्ञा जी के लिए फ़रमाया कि समणी द्वय विदेश यात्रा करके आई हैं। विदेश
में भी अध्ययन का कार्य चल रहा है। अध्यापन में पुण्यवत्ता भी होती है। ये आध्यात्मिक
सेवा करती रहें।
मुख्य नियोजिका
साध्वी श्री विश्रुत विभाजी ने कहा कि जीवन को सुखी बनाने के लिए पवित्र भावनाओं की
आवश्यकता होती है । प्रशस्त लेश्या शुभभावों को पैदा करती है। भाव प्रतिबद्ध होने से
और पावरफुल बनेगा। कार्यक्रम में समणी उन्नतप्रज्ञा जी ने अभिव्यक्ति दी । चतुर्दशी
होने पर कार्यक्रम में हाजरी वाचन किया गया ।
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