स्थानीय व देशभर से समागत समस्त श्रद्धालुओं को धर्मदान की महत्ता से परिचय कराते हुऐ पूज्यप्रवर ने फरमाया कि धर्मदान की दृष्टि से तीन प्रकार के दान बताए गऐ है - ज्ञानदान, संयति दान और अभयदान। ज्ञानदान के संदर्भ में स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने फरमाया कि किसी को आध्यात्मिक, तात्विक, कल्याणकारी ज्ञान देना, उन्मार्ग से सन्मार्ग में ले जाना ये ज्ञानदान है । ज्ञानी अपना ज्ञान दुसरों को देते है जिससे ज्ञान की परंपरा अविच्छिन्न रह सकती है । ज्ञान को साथ में ले जाए अथवा किसी को न दिया जाऐ तो कुछ ज्ञान का लोप भी हो सकता है ।
भारत की एेतिहासिक संपदा का वर्णन करते हुए राष्ट्र संत श्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि भारत एक ऐसा देश है जिसमें प्रचीन काल में कितना ज्ञान रहा है, आज भी है। संस्कृत भाषा में, प्राकृत भाषा में, पाली साहित्य के रूप में और भी अन्य भाषाओं में कितना ज्ञान का खाजाना भारत के पास है। परन्तु प्राचीन काल की तुलना में देखें तो आज का ज्ञान कम रह गया है। कितना लुप्त हो गया है ।
चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहू व स्थूलभद्र के घटना प्रसंग के माध्यम से ज्ञान ते पात्र पर प्रकाश डालते हुए प्रभावी प्रवचनकार आचार्यवर ने आगे फरमाया कि ज्ञान योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए । किसी अयोग्य व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना चाहिए, अयोग्य को ज्ञान देना गलत माना गया है और योग्य व्यक्ति यदि पात्र हो तो उसको यथोचित ज्ञान भी देना चाहिए, हर किसी के पास ज्ञान चला जाऐ तो ज्ञान विनाश करने में भी निमित्त बन सकता है । अणु बम - परमाणु बम का ज्ञान हर किसी के हाथ लग जाए तो पता नही क्या हो जाए ? हर किसी के पास ज्ञान जाना ठीक नहीं है, सुपात्र देखकर ही ज्ञान दिया जाना चाहिए ।
पूज्यप्रवर के स्वागत में राजेन्द्र सेठिया, आभा सेठिया, सुशीला सेठिया, रजनी बाफणा, जयचन्द लाल जी मालू व कनिष्क सेठिया ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी । कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार जी ने किया।
1 Comments
Om arham
ReplyDeleteLeave your valuable comments about this here :