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जिनका संवाद सन्देश बन गया

राष्ट्रीय संत गणाधिपति तुलसी
बीसवीं सदी के आध्यात्मिक क्षितिज पर प्रमुखता से उभरने वाले एक महान संत आचार्य श्री तुलसी की पावन स्मृति का अर्थ है समाज और देश को उन्नति दिशाओं की ओर अग्रसर करना। क्योंकि देश की ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में उनके अप्रतिम योगदान रहे हैं। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य होते हुए भी उनके कार्यक्रम संप्रदाय की सीमा रेखाओं से सदा ऊपर रहें। उनका दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था। जब लोग उनका परिचय पूछते तब वे स्वयं अपना परिचय इस तरह से देते थे- 'मैं सबसे पहले एक मानव हूँ। फिर मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ, फिर में एक साधनाशील जैन मुनि हूँ और उसके बाद तेरापंथ संप्रदाय का आचार्य हूँ।' आचार्य तुलसी सचमुच व्यक्ति नहीं, वे धर्म, दर्शन, कला, साहित्य और संस्कृति के प्रतिनिधि ऋषिपुरुष थे। उनका संवाद, साहित्य, साधना, सोच, सपने और संकल्प सभी मानवीय-मूल्यों के उत्थान और उन्नयन से जुड़े थे। जिनका हर संवाद सन्देश बन गया।
बाल वय से संन्यास के पथ पर प्रस्थित होकर क्रमशः आचार्य, अणुव्रत अणुशास्ता, राष्ट्रसंत एवं मानव कल्याण के पुरोधा के रूप में विख्यात हुए हैं। काल के अनन्त प्रवाह में 80 वर्षों का मूल्य बहुत नगण्य होता है पर आचार्य तुलसी ने उद्देश्यपूर्ण जीवन जीकर जो उंचाइयां एवं उपलब्धियां हासिल की हैं वे किसी कल्पना के उड़ान से भी अधिक है। हमारे सामने समस्या यह है कि हम कैसे मापें उस आकाश को, कैसे बांधे उस समन्दर को, कैसे गिने वर्षात की बूंदों को? आचार्य तुलसी की मानव उत्थान की उपलब्धियां उम्र के पैमानों से इतनी ज्यादा हैं कि उनके आकलन में गणित का हर फार्मूला छोटा पड़ जाता है। 
जैन धर्म एवं तेरापंथ सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध होने पर भी आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक रहा है। उनकी मानवीय संवदेना ने पूरी मानवता को करुणा से भिगोया था यह कहकर कि 'मैं उस दिन की आशा लिये हूं जिस दिन किसी को फांसी तो क्या, जेल की सजा भी नहीं मिलेगी।' और इसीलिये वे इंसान को सही मायने में इंसान बनाने और बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में जुटे रहे। वे धर्म को व्यापक बनाने के प्रयास करते रहे। उन्हें यह चिन्ता नहीं थी कि इक्कीसवीं सदी कैसी होगी? उन्हें चिन्ता थी हमारा कल कैसे होगा? इंसान कैसा होगा? इसीलिये उम्रभर व्यक्तित्व-निर्माण की प्रयोगशाला में प्रयोक्ता बन कर वे एक शुभ-संस्कृति को आकार देते रहे। वे कहते थे- " जैन धर्म मेरी रग-रग में, नस-नस में रमा हुआ है, किन्तु साम्प्रदायिक दृष्टि से नहीं, व्यापक दृष्टि से। क्योंकि मैं सम्प्रदाय में रहता हूं पर सम्प्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता। मैं सोचता हूं मानव जाति को कुछ नया देना है तो साम्प्रदायिक दृष्टि से नहीं दिया जा सकता। यही कारण है कि मैंने सम्प्रदाय की सीमा को अलग रखा और धर्म की सीमा को अलग।"
इसी व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर आचार्य तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म का आन्दोलन चलाया, जो जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रान्त एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव जाति को जीवन मूल्यों के प्रति आकृष्ट कर सके। इस असाम्प्रदायिक मानव धर्म का नाम है अणुव्रत आन्दोलन। आचार्य तुलसी ने धार्मिकता के साथ नैतिकता की नयी सोच देकर अणुव्रत दर्शन को प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य था- मानवीय एकता का विकास, सहअस्तित्व की भावना का विकास, व्यवहार में प्रामाणिकता का विकास, आत्मनिरीक्षण की प्रवृति का विकास व समाज में सही मानदण्ड़ों का विकास। आचार्य तुलसी ने कल्पना की कि 21वीं सदी के भारत का निर्माता मानव होगा और वह अणुव्रती होगा । अणुव्रती गृह संन्यासी नहीं होगा वह भारत का आम आदमी होगा और एक नये जीवन दर्शन को लेकर भविष्य का मार्गदर्शन तय करेगा। 
आचार्य तुलसी ने संप्रदाय से भी अधिक महत्व मानवता को दिया। मानवता के उत्थान के लिए उन्होंने विविध प्रकार के कार्यक्रम प्रारंभ किए थे। जिनमें प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान आदि प्रमुख है। उन्होंने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को पोषण देने के लिये जैन विश्वविद्यालय की स्थापना की, करीब एक लाख किलोमीटर पैदल चले, सौ से अधिक पुस्तकें लिखी- इन्हीं सब व्यापक गतिविधियों के कारण वे जैनाचार्य की अपेक्षा एक मानवतावादी संत के रूप में अधिक जाने गए। जैन आचार्य तो वे थे ही अपने कार्यों से वे जनाचार्य भी बन गए थे। जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख या अन्य संप्रदायों को मानने वाले लोग भी उनमें आस्था रखते थे। आचार्य तुलसी की पहचान बन गयी - वे भीड़ में भी सदा अकेले होते, ग्रंथों से घिरे रहकर भी वे निग्र्रंथ से दीखते और लाखों लोगों के अपनत्व से जुड़कर भी निर्बन्धता को जीते।
देश में नैतिक मूल्यों के तेजी से होते हुए हृास को देखकर वे बडे़ चिंतित थे। उन्होंने यह महसूस किया था कि इस नैतिक पतन को अगर नहीं रोका गया तो राष्ट्र भीतर से खोखला (शक्तिहीन) हो जाएगा। अणुव्रत आंदोलन का प्रारंभ कर आचार्य तुलसी ने देश में नैतिक विकास का शंखनाद किया। इससे जुड़ी मानवीय एकता, सार्वभौम अहिंसा, सर्वधर्म समन्वय, सापेक्ष चिन्तनशैली से विकास की नई फिजाएं आकार लेने लगी। 
आचार्य श्री तुलसी का सम्पूर्ण जीवन जहां मानवीय-मूल्यों का सुरक्षा प्रहरी था, वहीं वे सर्वधर्म समभाव के प्रतीक पुरुष थे। साम्प्रदायिक कट्टरता को उन्होंने कभी उचित नहीं माना। उनका कहना था कि धर्म का स्थान सम्प्रदाय से ऊपर है। उन्होंने सभी धर्मगुरुओं को भी साम्प्रदायिक आग्रहों को छोड़कर सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रेरित किया, सभी धर्म, जाति एवं वर्ग के लोगों को एक मंच पर लाने में वे कामयाब हुए थे।
आचार्य तुलसी ने अणुव्रत को असाम्प्रदायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया उनका कथन है "इतिहास में ऐसे धर्मों की चर्चा है, जिनके कारण मानव जाति विभक्त हो गयी है। जिन्हें निमित्त बनाकर लड़ाइयां लड़ी गई है किन्तु विभक्त मानव जाति को जोड़ने वाले अथवा संघर्ष को शान्ति की दिशा देने वाले किसी धर्म की चर्चा नहीं है। क्यों ? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता, जो संसार के सब मनुष्यों को एक सूत्र में बांध सके। अणुव्रत को मैं एक धर्म के रूप में देखता हूं पर किसी सम्प्रदाय के साथ इसका गठबन्धन नहीं है। इस दृष्टि से मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि अणुव्रत धर्म है पर यह किसी वर्ग विशेष का नहीं। अणुव्रत जीवन को अखण्ड बनाने की बात करता है। अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मन्दिर में जाकर भक्त बन जाय और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी। वे मानते थे कि भारत की माटी के कण-कण में महापुरूषों के उपदेश की प्रतिध्वनियां है। यहां गांव-गांव में मन्दिर है, मठ है, धर्म स्थान है, धर्मोपदेशक है फिर भी चारित्रिक दुर्बलता का अनुत्तरित प्रश्न क्यों हमारे समक्ष आज भी आक्रान्त मुद्रा में खड़ा है।
अणुव्रत की आचार संहिता से प्रभावित होकर स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि आज के युग में जबकि मानव अपनी भौतिक उन्नति से चकाचैंध होता दिखाई दे रहा है और जीवन के नैतिक व आध्यात्मिक तत्वों की अवहेलना कर रहा है वहां अणुव्रत आन्दोलन द्वारा न केवल मानव अपना सन्तुलन बनाये रख सकता है बल्कि भौतिकवाद के विनाशकारी परिणाम से बचने की आशा कर सकता है।
आचार्य तुलसी सभी के लिये प्रणम्य है, आपके विचार जीवन का दर्शन है, संवाद जीने की सही सीख है। यही कारण है कि उन्होंने अपने व्यापक दृष्टिकोण से सभी धर्मों के व्यक्तियों को नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान बनाया है। वे किसी की व्यक्तिगत आस्था या उपासना पद्धति में हस्तक्षेप नहीं करते। आचार्य तुलसी ने यह दावा कभी नहीं किया है वे इस धरती से भ्रष्टाचार की जड़ें उखाड़ देगें परन्तु उनका मानना था कि वे सदाचार की प्रेरणा तब तक देते रहेगे जब तक हर सुबह का सूरज अन्धकार को चुनौती देकर प्रकाश की वर्षा करता रहेगा। 
आचार्य तुलसी की निर्वाण दिवस पर हमारा संकल्प हो कि हम उनके आदर्शों को जीवन में अपनायेंगे और एक आदर्श समाज निर्माण में सहभागी बनेंगे।
-ललित गर्ग

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1 Comments

  1. अद्भुत
    शत शत नमन *मानवता के महामसीहा को*

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