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आचार्यश्री महाश्रमणजी |
ऐतिहासिक शिलोंग प्रवास सुसंपन्न कर प्रस्थित हुए शांतिदूत
28.11.2016 बड़ापानी, (मेघालय)ः मेघालय की राजधानी शिलोंग की ऐतिहासिक यात्रा व छह दिवसीय पावन प्रवास संपन्न कर जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ सोमवार को शिलोंग से पुनः गुवाहाटी की ओर प्रस्थित हुए। जैसे पहाड़ों निकलकर नदियां मैदानी भागों को अपने जल से अभिसिंचन प्रदान करती हैं, वैसे ही अब ज्योतिचरण एक बार पुनः अब हसीन वादियों से निकलकर मैदानी इलाकों में ज्ञानगंगा को प्रवाहित करेंगे।

यहां उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने सेवा धर्म का ज्ञान प्रदान करते हुए कहा कि जब तक आदमी को बुढ़ापा पीड़ित न करने लगे, शरीर व्याधि से ग्रसित न हो जाए, इन्द्रियां साथ न छोड़ने लगे तब तक आदमी को सेवा धर्म करना चाहिए। जहां श्रम और सेवा की बात आती है वहां बुढ़ा शरीर कितना सक्षम हो सकता है। श्रम और सेवा के लिए जो शारीरिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है उसके लिए शरीर का स्वस्थ रहना, इन्द्रियों का सक्रिय रहना और शक्ति का संचार होना आवश्यक होता है। शरीर जब बुढ़ा होता है तो आंखों से दिखाई कम देने लगता है, जोड़ों में दर्द होने लगता है, बाद सफेद हो जाते हैं, भुजाओं में उतना बल नहीं होता, शरीर व्याधियों का घर बन जाता है। शरीर स्वस्थ हो तभी अच्छी साधना भी हो सकती है। इसलिए आदमी को शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही इन्द्रियों के सक्षम रहते सेवा धर्म कर लेना चाहिए।
ज्ञानाराधना और सेवाराधना स्वस्थ शरीर से ही हो सकता है। आचार्यश्री ने तेरापंथ धर्मसंघ के प्रणेता आचार्य भिक्षु की श्रमशीलता का वर्णन किया और कहा कि वे उम्र के आठवें दशक में भी कितने सक्रिय रहते थे। इसलिए आदमी को अपने शरीर का अच्छा उपयोग करना चाहिए और धर्म की आराधना करनी चाहिए।

चतुर्दशी तिथि होने के कारण आचार्यश्री ने हाजरी वाचन किया और साधु-साध्वियों के लिए आवश्यक नियमों, महाव्रतों के प्रति सदैव जागरूक रहने की प्रेरणा प्रदान की। वहीं उपस्थित समस्त साधु-साध्वियों ने आचार्यश्री के समक्ष लेखपत्र का उच्चारण करते हुए संघ निष्ठा के संकल्पों को दोहराया।
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