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समता की चेतना को जागृत करे : आचार्यश्री महाश्रमण

-बोको से विहार कर आचार्यश्री पहुंचे सिंगरा हाईस्कूल-
-विद्यालय परिसर में हो रही परीक्षाओं के कारण आचार्यश्री ने प्रवचन समय में किया परिवर्तन-

आचार्यश्री महाश्रमणजी

        10.12.2016 सिंगरा, कामरूप (असम) : जन-जन के मन में मानवता के बीज बोने, जन-जन की चेतना को जागृत करने और जीवन में शांति, समृद्धि, समरसता का समावेश करने को अहिंसा यात्रा लेकर निकले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ तेरापंथ के एकादशमाधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने शनिवार को सिंगरा हाई स्कूल में एक ऐसी मिशाल पेश की, जो भी इसके गवाह बने, शांतिदूत के वत्सलता के प्रति अभिभूत और नतमस्तक हो गया। 
शनिवार की सुबह कोहरे में लिपटी सुबह के बावजूद पूर्व निर्धारित समय पर आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ बोको हाई स्कूल से विहार किया। आज का मार्ग वृक्षों से आसमान छूते सागौन के वृक्षों से आच्छादित था। मार्ग पर संयमबद्ध होकर जन-जीवन की नई ऊंचाइयां देती बढ़ती अहिंसा यात्रा तो दूसरी ओर कतारबद्ध असमान की ऊंचाइयों को छूते सागौन के वृक्ष मानों यात्रा से प्रेरणा ले रहे तो थे लोगांे केे अनुशासित जीवन से होने वाले विकास के साक्षी बन रहे थे। लगभग पूरे विहार पर इन विशालकाय वृक्षों का साथ होने से ऐसा लग रहा था जैसे वे इस महान यात्रा के सहभागी बन रहे हों। लगभग दस किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री लगभग नौ बजे सिंगरा हाईस्कूल प्रांगण में पधारे। आचार्यश्री जिस समय विद्यालय में पहुंचे तो उस समय विद्यालय में विद्यार्थियों की परीक्षा चल रही थी। जन-जन में मानवता के मसीहा के रूप में विख्यात वत्सलता की मूर्ति आचार्यश्री महाश्रमणजी ने परीक्षा में विद्यार्थियों को बाधा न पहुंचे इसलिए आचार्यश्री ने अपने प्रवचन कार्यक्रम को परीक्षा के उपरान्त करने का निर्णय लिया। आचार्यश्री की इस अनुकंपा और वत्सलता से पूर्ण निर्णय के साक्षी बनने वाले स्कूल के शिक्षक, श्रद्धालु आचार्यश्री की वत्सलता से अभिभूत और कृतज्ञ नजर आ रहे थे। 
परीक्षा समाप्ति के उपरान्त आचार्यश्री ने अपनी मंगलवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि पदार्थों में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे विकृति को पैदा कर सके। पदार्थ आदमी में न विकृति भर सकते हैं और न हीं समता से भर सकते हैं। विकृति या समता को पैदा करना आदमी की चेतना पर आधारित होता है। पदार्थ चेतना की जागृति में निमित्त बन सकता है। उदाहरण देते हुए आचार्यश्री ने कहा कि ज्ञान प्राप्ति में पुस्तकें निमित्त बनती है, किन्तु भीतर की चेतना जागृत हुए बिना उस ज्ञान का सदुपयोग कर संभव नहीं लगता। पुस्तक जो पदार्थ है उसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए आदमी को अपने भीतर समता भाव की चेतना को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। मोह, काम, भोग से विकृति पैदा करने वाली होती है। इसलिए आदमी को मोह, काम, भोग और पदार्थों के प्रति आसक्ति नहीं अनासक्ति की भावना रखते हुए समता की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के जीवन में अच्छे विचार, संस्कार, व्यवहार और आचार को बनाने का प्रयास करना चाहिए। अच्छे विचार अच्छे संस्कार के रूप में परिणत हो जाते हैं तो व्यक्ति का आचार और व्यवहार भी अच्छे बन सकते हैं। जीवन में पुरुषार्थ हो, तो सफलता प्राप्त हो सकती है। आदमी समता भाव से पराक्रम, पुरुषार्थ कर जीवन को सुफल बना सकता है।


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