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ज्ञान दुनिया का पवित्र तत्व है : आचार्य श्री महाश्रमण

- कूचबिहार में वर्धमान महोत्सव सुसम्पन्न कर शांतिदूत ने धवल सेना के साथ किया प्रस्थान -
- आचार्यश्री ने ज्ञानार्जन कर आत्मोत्थान की दिशा में आगे बढ़ने का दिया ज्ञान -
आचार्यश्री महाश्रमणजी

          16.01.2017 पुंडीबारी, कूचबिहार (पश्चिम बंगाल) (JTN) : कूचबिहार में चार दिवसीय प्रवास के साथ ही तेरापंथ धर्मसंघ का त्रिदिवसीय वर्धमान महोत्सव सुसम्पन्न कर वर्धमानता के प्रतीक, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ सोमवार को कूचबिहार से आगे की ओर कूच किया और प्रवर्धमान कर दी अहिंसा यात्रा को अगले लक्ष्य की ओर। करीब बारह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ पुंडीबारी स्थित जी.डी.एल. गल्र्स हाईस्कूल में पहुंचे। प्रांगण में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को ज्ञानार्जन कर अपनी आत्मा का कल्याण करने की मंगल संदेश प्रदान किया। 
         कूचबिहार में वर्धमान महोत्सव को सुसंपन्न कर और श्रद्धालुओं को नैतिक जीवन की अभिप्रेरणा प्रदान कर जब आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ विहार किए तो एक बार पुनः आचार्यश्री के दर्शनार्थ श्रद्धालुओं का हुजूम उमड़ पड़ा। सभी लोग अपनी धरा से इस महापुरुष को विदाई देने को सहज तैयार दिखाई नहीं दे रहे थे, किन्तु समता के साधक और जन कल्याण के लिए निरंतर गतिमान ज्योतिचरण को रोक पाना असंभव था। आचार्यश्री सभी श्रद्धालुओं पर अपने करकमलों से आशीष की वृष्टि करते गतिमान हो चले। लगभग बारह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री अपनी संपूर्ण धवल सेना के साथ पुंडीबारी स्थित जी.डी.एल. गल्र्स हाईस्कूल प्रांगण में पहुंचे। 
         यहां उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आदमी सुनकर पाप और कल्याण को जान लेता है। कल्याण और पाप को जानने के उपरान्त आचरण उसी का करना चाहिए तो श्रेयस्कर है। श्रेयस्कर आचारण के माध्यम से आदमी आत्मोत्थान की दिशा में आगे बढ़ सकता है। ग्रन्थों को पढ़कर भी ज्ञानार्जन किया जा सकता है। पुराने जमाने में शायद इतनी ग्रन्थों उपलब्धता नहीं रही होगी किन्तु वर्तमान समय में अनेकानेक ग्रन्थों की पुस्तकें उपलब्ध हैं और लोग उसे पढ़कर ज्ञानार्जन कर सकते हैं। आगम या अन्य किसी ग्रन्थों का स्वाध्याय द्वारा ज्ञान का आलोक प्राप्त किया जा सकता है। साधुओं को तो आगम स्वाध्याय पर विशेष बल देने का प्रयास करना चाहिए और अपने ज्ञान को वृद्धिंगत करने का प्रयास करना चाहिए। सुनकर भी ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। सत्संगत और ज्ञानी संतों की सन्निधि कर भी ज्ञानार्जन किया जा सकता है। ज्ञानी मुनियों के सहवर्ती भी ज्ञानी बन सकता है। 
         आचार्यश्री ने गणाधिपति गुरुदेव तुलसी के जीवन वृत्त को वर्णित करते हुए कहा कि आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में शिक्षक की भूमिका निभाई। कितने लोगों को ज्ञान का आलोक बांटा। उनमें संस्कृत भाषा का कितना वैदुष्य था। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी और तेरापंथ धर्मसंघ के प्रथम आचार्य भिक्षु ने भी शिक्षक की भांति जग के कितने-कितने साधु-संतों और श्रावकों को ज्ञानवान बनाया था। आदमी को निरंतर श्रवण और मनन कर निरंतर ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। 
         ज्ञान दुनिया का पवित्र तत्त्व है और इसमें आध्यात्मिक विद्या का ज्ञान तो और पवित्र होता है। वैसा ज्ञान जिसके अर्जन से मैत्री की भावना प्रगाढ़ हो, अहिंसा की चेतना जागृत हो, कषाय मंद हो ऐसे ज्ञान को ग्रहण कर आदमी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। वह ज्ञान आदमी के चित्त को शांति प्रदान करने वाला भी बन सकता है। 






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