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पांच इन्द्रियों में जीभ को जीतना कठिन होता है - आचार्य श्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमणजी

          24 फरवरी 2017, जोकीहाट (JTN) : बिशनपुर से अपनी धवल सेना के साथ विहार कर शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी जोकीहाट पधारें।
          जोकीहाट के श्रीराम जानकी मंदिर परिसर में बने पंडाल में उपस्थित जनमेदनी को अपने मुख्य प्रवचन में संबोधित करते हुए पूज्य प्रवर ने फ़रमाया की हमारे जीवन में याचना (मांग) भी होती है। धर्म शास्त्रों में भी याचना (मांग) की बात प्राप्त होती है। जैन वागमय में यह याचना की गई की मुझे आरोग्य दे, मुझे बोधी प्रदान करें, मुझे समाधी का वरदान दें। पर ये दे कौन? तीर्थंकरों की स्तवना की गई चौबीस तीर्थंकर जो वर्तमान अवसर्पिणी में प्रस्तुत भरत क्षेत्र में हुए है, नामोलेख पूर्वक उनकी स्तुति की गई है और स्तुति करके फिर मांग भी की गई है। मानो कुछ चाहिए इसलिए पहले स्तुति करके मांग भी कर दी और मांग भी एक नहीं कई मांगे कर ली गई है।
पूज्यप्रवर ने कहा कि दातार से मांग करे तो पूरी खुलकर करें, दातार से मांगने में कंजूसी क्यों करें।
          याचनाकर्ता ने कहा कि हे देव ! मुझे शरीर की प्रसन्नता, शरीर की स्वस्थता प्राप्त रहें। आरोग्य का एक भाग है शरीर और शरीर की निर्मलता के लिए जीभ को, रसना को जीतना होगा। पांच इन्द्रियों में जीभ को जीतना कठिन होता है, खाने में संयम रखे यह शरीर के लिए अच्छा होता है, वही साधना के लिए भी अच्छा होता है।
          पूज्यप्रवर ने कहा कि मन की प्रसन्नता मिले, समाधी मिले तो उसके समता का आश्रय रखो। आवेश में मत आओ। प्रतिकुलता में गुस्से में शोक में न जाए और अनुकुलता में ज्यादा ख़ुशीया मनाए यह बढिया नहीं, समता का आश्रय लेने से मानसिक प्रसन्नता प्राप्त हो सकेगी।
           दृष्टि की निर्मलता मुझे प्रदान हो आँख में कोई अवरोध न आए। बाहर की आँख निर्मल रहे तो हमारा भीतरी दृष्टिकोण भी निर्मल रहे। हमारा सम्यक्त्व निर्मल रहे और सम्यकदर्शन निर्मल रहे।
          हमारा सम्यक्त्व निर्मल रहे और सम्यकदर्शन निर्मल रहे इसके लिए आग्रह को छोड़ना चाहिए। पूज्यप्रवर ने कहा कि जिन्दगी में कुछ आदमी को करना होता है तब वह आदमी आगे बढ़ सकता है। एक साधु है तो वह साधना के क्षेत्र में परिश्रम करे, पुरुषार्थ करे। मांग की जाती है तो मांग के लिए खुद पुरुषार्थ करे।
          आचार्य श्री के प्रवचन से पूर्व साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा जी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि गुरु के चरणों की पूजा की जाए और वह पूजा फल फुल चढ़ा कर नहीं गुरु के चरणों में उपस्थित होना सबसे बड़ी पूजा है। जिन भगवान का चिंतन किया जाए, ध्यान किया जाए और शुद्ध साधुओं के चरणों में उपस्थित हो जाए तो उसके सारे पापों का नाश हो जाता है, गुरु की सन्निधि मिल जाए, गुरु की कृपा मिल जाए तो ताप पाप सब हर लेते है। जो साधक स्वयं पाप मुक्ति का साधक बनकर साधना करता है वह दूसरों के पापों को भी क्षिन करने वाला हो सकता है।











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