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विषययुक्त सुखों का त्याग करें : आचार्यश्री महाश्रमण

- ज्योतिचरण के चरणरज से पावन हुई धनुषी गांव की भूमि -
-आचार्यश्री को सुनने पहुंचे लोगों ने स्वीकार किए अहिंसा यात्रा के तीन संकल्प -
आचार्यश्री महाश्रमणजी

          25.03.2017 धनुषी, वैशाली (बिहार) (JTN) : बिहार राज्य में विहरण करती अहिंसा यात्रा अपने प्रणेता जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी apni श्वेत सेना के साथ वर्तमान समय में भगवान महावीर की जन्मभूमि के क्षेत्र वैशाली में यात्रायित है। आचार्यश्री महाश्रमणजी ने एक बार पुनः वेशालीवासियों को भगवान महावीर के संदेशों से अभिसिंचत करने उनके हृदय में मानवता के बीज को अकुंरित करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि आचार्यश्री के संदशों को ग्रहण करने और इस महान यात्रा के संकल्पत्रयी को स्वीकार करने में वैशालीवासियों की अभिरुचि देख ऐसा महसूस हो रहा है कि कहीं न कहीं भगवान महावीर के प्रति उनकी निष्ठा प्रगाढ़ बनी हुई है। 
शनिवार को आचार्यश्री अपनी श्वेत सेना के साथ चल पड़े अगले पड़ाव की ओर। रास्ते के दोनों किनारे खेतों में लगे आम, अमरूद व लीची के फलदार वृक्षों को देखकर सहज ही यह अंदाजा हो रहा था कि इस क्षेत्र में फलदार वृक्षों के बगीचे काफी संख्या में मौजूद हैं। आम और लीची के वृक्षों पर मंजर लग रहे थे और उनकी सुगंध यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। वहीं मार्ग से गुजरते अहिंसा के पुजारी आचार्यश्री के तेज आकर्षित लोग सहज ही निकट आ रहे थे और आचार्यश्री के समक्ष करबद्ध हो उनकी अभ्यर्थना करते। आचार्यश्री शांत मुस्कान के साथ सभी पर समान रूप से आशीष वृष्टि करते बढ़ते चले जा रहे थे। इस तरह आचार्यश्री धनुषी गांव स्थित राम विदेशी सिंह महाविद्यालय के परिसर में पहुंचे। 
आचार्यश्री ने महाविद्यालय परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आदमी के जीवन में विषय जन्य सुख भी है तो इन्द्रियातित सुख भी होता है। विषयों से जनित सुख क्षणिक, थोड़े समय के लिए सुख देने वाले तो आत्मा से उत्पन्न सुख जीवन पर्यन्त और जीवन के बाद भी सुख और आनंद प्रदान करने वाले हो सकते हैं। विषयों से उत्पन्न सुख अच्छा नहीं, आत्मा से उत्पन्न सुख अच्छा हो सकता है। जैसे कोई मिठाई खाई जाए तो उसका सुख और आनंद तभी तक होता है, जब तक वह मुंह में होता है। पदार्थों का सुख आनंद की अनुभूति कराने वाला तो आत्मरस का सुख सरस हो सकता है। पदार्थों की आसक्ति मिले तो सुख देने वाली और न मिले तो दुःख देने वाली भी हो सकती है। काम और भोग अनर्थ के जनक होते हैं। विषयों से प्राप्त सुख स्थाई नहीं होता। साधना से मिलने वाला सुख स्थाई हो सकता है। 
आचार्यश्री ने लोगों को अभिप्रेरित करते हुए बिहार की भूमि और वैशाली का यह क्षेत्र भगवान महावीर की जन्मभूमि है। भगवान महावीर को जन्म देने वाली इस बिहार की धरती को जैन धर्म को विशेष अवदान देने वाली माना जा सकता है। भगवान महावीर ने विषययुक्त सुखों का त्याग कर त्यागी महापुरुष बन गए। यदि भगवान महावीर की साधना का बहुत थोड़ा अंश भी आदमी में आ जाए तो उसके जीवन का कल्याण हो सकता है। आदमी को साधना के माध्यम से अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा निर्मल है तो आनंद, सुख और शांति की प्राप्ति हो सकती है और मन मलीन तो अशांति और दुःख की प्राप्ति हो सकती है। आचार्यश्री ने तेरापंथी श्रद्धालुओं को शनिवार की सामायिक करने की विशेष प्रेरणा देते हुए कहा कि सामायिक की साधना भी एक समता की साधना है। शनिवार को सायं सात से आठ बजे के बीच सामायिक हो जाए, तो यह भी एक विशेष का सुअवसर हो सकता है। 






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