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श्रावक के तीन मनोरथ - आत्मा के उन्नयन का मार्ग : आचार्यश्री महाश्रमण

- आचार्यश्री महाश्रमण अपनी अहिंसा यात्रा के साथ पहुंचे गजम्बा -
- लोगों ने स्वीकार किए अहिंसा यात्रा के संकल्प, सहायक शिक्षक ने भी भावाभिव्यक्ति -
आचार्यश्री महाश्रमणजी

07.05.2017 गजम्बा, दुमका (झारखंड)ः इससे पूर्व भारत के दस राज्यों सहित दो विदेशी धरती नेपाल और भूटान को अपने चरणरज से पावन बनाकर एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना करने जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी अहिंसा यात्रा के साथ वर्तमान में झारखंड राज्य के दुमका जिले को अपने चरणरज से पावन कर रहे हैं और जन-जन में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति का संदेश देते हुए लोगों को आत्मोत्थान की दिशा में आगे बढ़ने की पावन प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। 
रविवार को प्रातः लगभग छह बजे आचार्यश्री अपनी धवल सेना के साथ अगले गंतव्य को रवाना हुए। वर्तमान का यह मार्ग निर्माणाधीन है। जिसके कारण धूल, गड्ढ़े और गिट्टी से मार्ग भरा हुआ है, किन्तु मार्ग के दोनों तरफ चट्टानों से निर्मित पहाड़ और जंगल लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। नव निर्माणाधीन मार्ग से लगभग दस किलोमीटर की यात्रा कर आचार्यश्री गजम्बा गांव स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय के प्रांगण में पहुंचे। 
विद्यालय परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने आत्मा के उन्नयन के श्रावक के तीन मनोरथों का वर्णन करते हुए कहा कि दुनिया में गृहस्थ और गृह त्यागी लोग होते हैं। एक गृहवासी और दूसरा गृह त्यागी संन्यासी। कई गृहस्थ भी संयम में भिक्षुओं से ऊंचे हो सकते हैं। हालांकि साधु का संयम गृहस्थ से ऊंचा होता है, किन्तु कई-कई गृहस्थ का संयम भी कुछ साधुओं से ऊंचा हो सकता है। परिग्रहों का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पानी प्रयोग का अल्पीकरण आदि करने से गृहस्थ भी संयमी हो सकता है। गृहस्थ को अपने जीवन में तीन मनोरथ रखने का प्रयास करना चाहिए। श्रावक का पहला मनोरथ-कब मैं परिग्रह का पत्याख्यान करूं। आदमी को गृहस्थ जीवन में पैसा भी चाहिए, किन्तु एक समय के पश्चात आदमी को परिग्रहों का अल्पीकरण करने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ साधुओं की तरह पूर्ण परिग्रही न बन सके तो अल्पेच्छ बनने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा के कल्याण की दृष्टि से परिग्रहों का त्याग आवश्यक हो सकता है। आदमी के भीतर विसर्जन की भावना जागृत हो तो परिग्रहों का अल्पीकरण कर हो सकता है। श्रावक का दूसरा मनोरथ मुंड होकर गृहस्थावस्था का त्याग कर साधुव्रत स्वीकार करने का होना चाहिए। तीसरा मनोरथ जीवन का समापन अनशन, संलेखना की स्थिति में हो तो आत्मा कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकती है। इन तीन बातों का ध्यान में रखकर आदमी को अपनी आत्मा को उन्नयन की दिशा में आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। 
आचार्यश्री के आह्वान पर उपस्थित ग्रामीणों ने अहिंसा यात्रा के तीनों संकल्प स्वीकार किए। विद्यालय के सहायक अध्यापक श्री कलाचन्द लायक ने आचार्यश्री का अपने विद्यालय में स्वागत करते हुए कहा कि यह इस गांव और विद्यालय का सौभाग्य है तो आप जैसे संत का यहां आगमन हुआ। हम आपके दर्शन और प्रवचन से लाभान्वित हुए हैं। आपके द्वारा दिलाए गए संकल्पों को यथासंभव जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। अहिंसा यात्रा प्रबन्धन समिति की ओर से विद्यालय परिवार को उपहार भी प्रदान किया गया। 

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