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स्वाध्याय में स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ तीनों समाहित: आचार्यश्री महाश्रमण

- पर्युषण महापर्व का दूसरा दिन स्वाध्याय दिवस के रूप में आयोजित -
- आचार्यश्री ने ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय के प्रति उत्साह और अनुराग रखने की दी प्रेरणा -
- चतुर्दशी तिथि को गुरु सन्निधि में उपस्थित साधु-साध्वियों ने लेख पत्र का किया उच्चारण -
- क्षांति-मुक्ति पर मुख्यमुनिश्री ने दिया उद्बोध तो साध्वीवर्याजी ने गीत के माध्यम से किया उत्प्रेरित -

20 अगस्त 2017 राजरहाट, कोलकाता (पश्चिम बंगाल) (JTN) : जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, अखंड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में आरम्भ हुए पर्युषण महापर्व के दूसरे दिन रविवार को श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ पड़ी। पंडाल से लेकर पूरे महाश्रमण विहार में जिस ओर नजर जा रही थी उधर लोग ही लोग नजर आ रहे थे। एक तो गुरु सन्निधि में पर्युषण महापर्व की आराधना को पहुंचे लोगों की उपस्थिति तो वहीं रोजमर्रा की जिन्दगी में उलझे हुए श्रद्धालुओं को एकमात्र फुर्सत का दिन रविवार होने के कारण अपने काम से छुट्टी मिलने पर कोलकातावासी पहुंच अपने आराध्य की सन्निधि में। 
श्रद्धालुओं की विराट उपस्थिति के बीच निर्धारित समय पर आचार्यश्री जब मंचासीन हुए तो आज समस्त धवल सेना भी उनके इर्द-गिर्द विराजमान हुई। एक और साधु तो दूसरी ओ साध्वियां तथा सामने की ओर समणियां। कारण था हाजरी वाचन की तिथि चतुर्दशी का होना। यह उपस्थिति ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही मानों महासूर्य अपनी श्वेत रश्मियों के मध्य देदीप्यमान हो रहा हो। ऐसे मनोहारी दृश्य के साथ पर्युषण महापर्व का दूसरा दिन आचार्यश्री ने चतुर्विध धर्मसंघ को स्वाध्याय करने की पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में ज्ञान का परम महत्त्व होता है और ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख मार्ग है स्वाध्याय करना। इसलिए आदमी को अपने जीवन में निरंतर स्वाध्याय करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को स्वाध्याय में यथासंभव समय लगाने का प्रयास करना चाहिए। स्वाध्याय में स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ तीनों समाहित है। स्वाध्याय से स्वयं का ज्ञान बढ़ता है। ज्ञान बढ़ने से आदमी दूसरों को भी ज्ञान दे सकता है और स्वाध्याय से कर्मों का निर्जरा भी हो जाता है। इस प्रकार स्वाध्याय में स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ तीनों समाहित हैं। आचार्यश्री ने बालमुनियों और छोटी साध्वियों सहित समणियों को भी स्वाध्याय में विशेष समय लगाने और ज्ञान को कंठस्थीकरण करने की पावन प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने श्रावक-श्राविकाओं सहित, युवक, किशोर, किशोरियों को यथासंभव 25 बोल कंठस्थ करने के लिए अभिप्रेरित किया। आचार्यश्री ने साधु-साध्वियों को संस्कृत भाषा का विद्वान बनने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा विद्या प्राप्ति के लिए स्वाध्याय के प्रति उत्साह और अनुराग होना चाहिए। आचार्यश्री ने स्वरचित गीत ‘स्वाध्यायी नर पाता उपहार है’ गीत का संगान भी किया। 
चतुर्दशी तिथि होने के कारण आचार्यश्री ने मर्यादा पत्र का वाचन किया और सर्वप्रथम बालसाध्वियों से लेख पत्र का उच्चारण करवाया। इसके उपरान्त समस्त साधु-साध्वियों ने आचार्यश्री के समक्ष खड़े होकर एक साथ लेखपत्र का उच्चारण करते हुए संघ-संघपति के प्रति अपनी निष्ठा के संकल्पों को दोहराया। 
आगमों में वर्णित दस धर्म में प्रथम दो धर्म क्षांति और मुक्ति के विषय में मुख्यमुनिश्री ने श्रद्धालुओं को विशेष रूप से अपना उद्बोधन प्रदान किया। वहीं साध्वीवर्याजी ने गीत के माध्यम से लोगों कों क्षांति और मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। अंत में आचार्यश्री के श्रीमुख से लोगों ने अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। 





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