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महावीर वीर की करुणा ही मोक्ष है : मुनि सम्बोध कुमार



जीवन के जितने भी रंग है.... एक एक कर उन सारे रंगों में घुलकर भी जीवन रंगोली ना हो सका। दर्द से भी गुजरे..... प्यार का पारावार भी मिला, छप्पन लज़ीज पकवान भी परोसे.... और भुख ने भी कसौटीयो पर कसा, तंज भी कसे तो तारीफों के कसीदे भी पढ़े गये.... न राग अपने बहाव में बहा ले जा सका ना द्वेष अपने चुंगल में कही जकड़ सका.... ये कैसी घाघदारी थी... महावीर बेरंग मुसाफिर हो गये थे। जंगल के सन्नाटो में शहरों के शोर में.... मन कभी विचलन का शिकार ना हुआ। एक करुणा थी जो त्रिसंध्या बरसती रही। वो कब श्वेताम्बर थे, कब दिगम्बर हुए..... उन्हें आहट भी नहीं हुई.... बस होना था और हो गया... एक नियति जिसे बुन्नी थी वो बुन गयी.... महावीर का शगल सिर्फ विस्तार पाना था.... तो राग रंग के मक्कड़जाल में उलझे बिना अपनी करुणा को आखिर बिखेरते हुए विस्तार को हासिल होते गये। 

अमाप्य, अपार, अनहद, अंनत, असीम, अंतहीन करुणा का पिघलना तो कोख में ही शुरू हो गया था, वो " पूत के पांव पालने में पता चलने " के जुमले से पहले..... महावीर महसुस करने लगे - हलन चलन हाथ - पांवो में हो या सिरहन शरीर में... माँ त्रिशला किसी अनजाने दर्द से गुजर रही है - क्या करूं कि जननी को दर्द हो ही नहीं और फैसला ले लिया कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाने का... अब महावीर मुस्कुराये मगर जो हुआ वो कल्पना के इर्दगिर्द भी ना था। माँ त्रिशला का रोम रोम विचलन से भर उठा - ये क्या अनहोनी हो गयी, सब कुछ तो अच्छा था.... ये किस कर्म का खामियाजा है ? क्यों बच्चे की अचानक हलचल बन्द हो गयी ? क्या वो अजन्मा मेरे नसीब में नहीं था.... और ऐसे अनगिन सवाल ? जिनके जवाब की टोह में जाने कितने उधेड़बून बुन चुकी थी माँ त्रिशला। महावीर के बदन में सुरसुरी सी छुटी.... ये क्या हुआ मैंने तो माँ पीड़ा से राहत देने के मकसद से स्वयं को प्रतिमा स्वरूप बना लिया था.... मगर माँ को ये क्या हो गया.... माँ तो किसी मुरझाये फूल सी कुमल्हा गइ.... नहीं.... माँ अगर मेरे इस फैसले से आहत है तो ये मैं इस फैसले पर नहीं ठहर सकता.... और महावीर का मन रीस गया... चंचलता के कर्म फिर शुरू हो गये। और शुरू हो गया फिर कुछ घण्टो पहले ठहरा उत्सव। वाह री करुणा सागर री करुणा.... सारी सीमा.... सारी हदें.... सारी सरहदे लांघ गइ।

तकलीफ किसी और को हो सिहर उठता महावीर का रोम - रोम, दुःख से कोइ और गुजरता.... आंख महावीर की नम हो जाती.... ये प्रशस्त प्रेम था पुरी सृष्टि के लिये, न कोइ बड़ा, ना कोइ छोटा, न अमीर- न गरीब.... जो भी कायनात में सांस ले रहा है हर उस जीव जे लिये " आय तुले पयासु " का बर्ताव। एक सुबह माँ त्रिशला महावीर को अपने साथ तालाब किनारे ले आइ और एक ही सांस में कह गई.... जाओ वत्स जितनी चाहे क्रीड़ा करो.... महावीर सहमे से निःशब्द खड़े रहे.... माँ ने झकझोरा : जाओ बेटे... तो महावीर मुखर हुए - माँ मुझसे नहीं होगा, ये सब... ये तालाब की लहरें... और इन लहरों के साथ इनमें बह रही है सूक्ष्म जीवों की शांति... मेरा जमीर मुझे इजाजत नहीं देता की मैं इनसे इनकी शांति छीन लू.... माँ कुमार महावीर को विस्फारित नजर से देखती रही.... कुछ मिनटों के बाद जब तिलिस्म टूटा तो माँ ने होंठो पर स्मित मुस्कान बिखेर कर कहा : ठीक है... नहीं जाना तो ना जाओ ! चलो घर चलते है। 

सारी कायनात को शरीर का सुख दिखता है मगर महावीर को आत्मा का.... वे उस सुख की टोह में थे जो एक बारगी मिल जाये तो फिर कभी रीते ही नहीं.... अखंड... अटूट... अनुबंध में बंधना चाहते थे महावीर.... और अहिंसा इस बंधन की ओर पहला पड़ाव था - महावीर की अहिंसा महज किसी के "प्राणहरण" ना करो के दायरों में कैद नहीं थी.... उस अहिंसा के शब्द कोष में एक और ब्रह्मवाक्य लिखा - किसी के लिये मन में बुरे विचारों को उगने ना दे और अहिंसा की परिभाषा संवेदना की इस ऊंचाई पर पहुंचकर सम्पूर्णता ओढ़ लेती है। 

अहिंसा का मतलब वही जानते है,
जो इंसान को सही मायने में इंसान मानते है।। 

महावीर बचपन की देहरी पार कर जवां हुए.... अपने कक्ष के बाहर किसी की सुबकने की आवाज़ का छोर थामकर वो दासी तक पहुंच गये, वो दासी ही थी जो सुबक सुबक कर रोये जा रही थी.... और आंसुओ की एक एक बुंद साफ करने के लिये पड़े बरतनों पर गिरते हुए टिप-टिप शब्द को अर्थ दे रहे थे। महावीर प्रश्नायित नजर से कभी दासी तो कभी जुठे बर्तनों को निहार रहे थे.... कोइ जवाब नहीं मिला तो खुद ने दासी से पूछ लिया : क्या बात है दासी तुम क्यु रो रही हो ? क्या तुम्हे कहि दर्द महसुस हो रहा है ? या कोइ बात है जो तुम्हे रह रहकर सता रही है... या तुम्हारे साथ कुछ गलत हो गया ? महावीर प्रश्न पर प्रश्न दागते रहे और दासी का फफकना जारी रहा। कुछ कहो तो सही - हो सकता है कि मैं तुम्हें तुम्हारी समस्या से निजात दिलाने में सहभागी बन जाउ... महावीर ने आश्वासन दिया... तो सुबकते सुबकते ही दासी एक ही सांस में कह गइ : आज हमारे गांव में महोत्सव है, कुमार.... मगर अफसोस कि यहां इतने सारे काम है, मैं उन्हें पूरा करूं तब तक महोत्सव संपन्न हो जायेगा.... महावीर को समझते देर नहीं लगी.... बस इतनी सी बात - चलो हम और तुम साथ साथ कर लेते है सारा काम, बाकी तुम मुझ पर छोड़ दो... फिक्र मत करो... मैं सब संभाल लुंगा... और हा.... तुम्हे माँ की झिड़कियां ना सुन्नी पड़े... इसीलिये मेरा रथ लेकर जाओ ताकि वापिस जल्द लौट सको... रोना बंद करो... और मुस्कुराते हुए जाओ... दासी की उदासी चकनाचूर होकर मुस्कुराहट में तब्दील हो गई.... वो बार बार महावीर का आभार व्यक्त करते हुए विदा हुई।

महावीर की करुणा ही मोक्ष है, करुणा जो बांधती नहीं है किसी को किसी से, जो उलझाती नहीं.... भावुक नहीं बनाती.... राग के दलदल में धंसाती नहीं बस मुक्त करती है, वो करुणा की पराकाष्ठा ही तो थी - जो चाबुक से मारने को मुस्तैद ग्वाले पर क्षमा बनकर बरसती है, चण्डकौशिक के डसने के बाद अमीझर होकर नयनों से छलकती है, संगम के 20 मारणांतिक कष्टों के बावजुद अभयदान का रूप लेकर प्रकट होती है, गौशालक के विद्रोह के बाद भी होंठो की स्मित मुस्कान बिखर कर निखरती रही। 

ये जो "जीओ और जीने दो" के गगनभेदी नारे लगाकर हम दम भर रहे है कि महावीर ने कहा : महावीर ने ये कहा या नहीं स्पष्ट कारण के तल तक पहुंचने में उलझने हजारों और रास्ता एक भी नहीं, अगर महावीर ने कहा भी होगा तो कुछ यूं ही कहा होगा : शांति से जीओ और शांति से जीने दो। इस महावीर जयंति पर पड़ताल करे अपनी जीवन शैली की, कि क्या हमने जीवन के आसपास महावीर की करुणा को अपने मन की संवेदना बनने की इजाजत दी है ? अगर हां तो ! महावीर हर घर में है, महावीर हर दर पे है।

त्याग की बात तो हर कोइ करता है,
सत्य का नारा तो हर कोइ कहता है।
उतारे कथनी को करनी बनाकर जीवन में,
ऐसा महावीर तो एकाध हुआ करता है।।

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