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ज्ञान और ज्ञानी की कभी अवहेलना नही करनी चाहिए - आचार्य श्री महाश्रमण

10/12/2019, JTN, हमारे जीवन मे शिक्षा का महत्व है । ज्ञान विहीन आदमी कुछ खाली खाली सा होता है । "ज्ञानेन् हीन: पशुभिः समानाः" ज्ञान नहीं है तो आदमी कुछ अंशों में पशुओं के समान हो जाता है । अज्ञान एक प्रकार का अभिशाप है और ज्ञान वरदान है । अज्ञान कष्ट है, दुःख है । अंहकार, गुस्सा आदि यों तो कई पाप है परंतु अज्ञान इन सब पापों से बढ़कर है,  क्योंकि अज्ञानी आदमी अपने हित-अहित को भी समझ नहीं  पाता। ज्ञानी आदमी हो और वह कम बोले वह विशेष बात है । ज्ञान होने पर भी अपनी विद्वता का प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं  करना अच्छी बात है और शक्तिशाली होने पर भी क्षमाशील रहना , वह भी बहुत अच्छी बात है । शक्ति है फिर भी क्षमाशीलता है, ज्ञान में मौन रखना यानी ज्ञान का दिखावा नहीं करना । मौन वैसे सापेक्ष चीज है, ज्ञान है फिर भी मौन रखना और अज्ञान में भी कई बार मौन उपयोगी होता है , अज्ञानी आदमी के लिए भी मौन उपयोगी होता है । ज्ञान तो है नहीं और फालतू बातें बोल देना, उसकी अपेक्षा नहीं बोलना ठीक है । फालतू बातें बोलना, नासमझ की बातें बोलने की अपेक्षा न बोलना बढ़िया है ।
पूज्यप्रवर ने अकबर - बीरबल के दृष्टांत द्वारा मौन की महत्ता को समझाते हुए आगे फरमाया कि मूर्खों से पाला पड़े तो मौन रहना चाहिए । मौन के कई आयाम हो सकते है, रूप हो सकते हैं । साधना का एक अंग है मौन करना । आदमी ज्ञानी होने पर भी न बोले , अपना दिखावा न करे वह भी अच्छी बात है और बहुत अज्ञानी है, उसके लिए भी मौन एक विभूषण है । नीति शतक के  श्लोक का अर्थ करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि अपण्डित लोगों के लिए , मूर्ख लोगों के लिए तो मौन गहना-आभूषण है अर्थात उसकी अज्ञानता झलके नहीं, भीतर ही रहे । अज्ञानता तो ढकने का एक तरीका है मौन का कपड़ा पहन लेना । हम शरीर को ढकने के लिए जैसे कपड़े पहन लेते है वैसे ही अज्ञानता को ढकने का एक कपड़ा है, आवरण है - मौन , परन्तु हमारा मौन अज्ञानता को ढकने के लिए न होकर , ज्ञान होते हुए भी हम मौन रखें, कम बोलें वह बड़ी बात, बड़ी अच्छी विशेषता हो सकती है । ज्ञान बढ़ाने के लिए आदमी में बुद्धि की अपेक्षा होती है । आदमी में बुद्धि है तो ज्ञान का विकास हो सकेगा , बुद्धि नही है, प्रतिभा नहीं तो ज्ञान का विकास होना मुश्किल है । चाहे डॉक्टर बनना हो, चाहे वकील बनना हो, चाहे इंजिनीयर बनना हो, चाहे न्यायाधीश बनना हो, ऐसा कुछ बनना है तो प्रतिभा है, बुद्धि है तो आदमी अच्छा अध्ययन कर सकेगा , ज्ञान प्राप्त कर सकेगा और अच्छे स्थान पर भी आ सकता है । बुद्धि अपने आप मे एक शक्ति है, उपलब्धि है परंतु बुद्धि शुद्ध होती है तो ज्यादा काम की है । शुद्ध बुद्धि है वह काम की है । शुद्ध बुद्धि है वह लक्ष्मी को पैदा करने वाली होती है, धन, आभा, विभा, सम्पदा को पैदा करने वाली होती है और विपत्तियां आने वाली लगे उसको रोकने वाली बुद्धि होती है । बुद्धिमान आदमी आने वाली सम्भावित विपत्ति को रोकने का प्रयास करता है । बुद्धि के साथ अगर प्रयास किया जाए तो विपत्ति को रोका जा सकता है । यश, कीर्ति को बढाने वाली बुद्धि होती है । बुद्धिमान आदमी है तो लोग सोचते हैं कि यह बुद्धिमान है, ज्ञानी आदमी है तो यश बढ़ता है । जीवन में गंदगी है, विचारों में गंदगी है तो उसे प्रमार्जित करने वाले भी बुद्धि है । शुद्ध बुद्धि है वह दूसरों के विचारों को, दुसरो की गंदगी को दूर कर सकती है । संस्कारों में शुद्धता लाकर दूसरों को पुनीत बना देती है, पवित्र बना देती है , शुद्ध बुद्धि रूपी जो कामधेनु है वह ऐसे काम कर सकती है । बुद्धि का विकास होना चाहिए, हमारे जीवन में बुद्धि का बड़ा महत्व है । निर्बुद्धि एक तरह से बलहीन बन जाता है । जिसके पास बुद्धि है उसके पास बल है , निर्बुद्धि आदमी के पास बौद्धिक बल कहाँ से आ सकेगा ? बुद्धि है तो शिक्षा का विकास हो सकता है । बुद्धि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली चीज है । ज्ञानावरणीय कर्म हल्का होता है तो बुद्धि अच्छी रहती है । परमपूज्य गुरुदेव तुलसी का स्मरण करते हुए कहा- उनकी पास कितनी प्रतिभा थी , कितने श्लोकों को, गाथा प्रमाण ज्ञान को उन्होंने कंठस्थ कर लिया था । हजारों हजारों गाथा प्रमाण ज्ञान तो उन्होंने कंठस्थ कर लिया था , कितना ज्ञान था, बुद्धि थी, प्रवचन का उनका अपना तरीका था । गुरुदेव तुलसी की विहार भूमि यह दक्षिण भारत रहा है , कहाँ कहाँ वे पधारे थे, मानो कि धरती पुनीत हो गई उनके चरणों का स्पर्श पाकर । दक्षिण की धरती लहलहा उठी, पुनीत हो गई उनका स्पर्श पाकर , जगह जगह गुरुदेव तुलसी पधारे थे , चेन्नई में चातुर्मास किया, बंगलोर में चातुर्मास किया, हैदराबाद में मर्यादा महोत्सव किया, फिर आगे रायपुर चातुर्मास, फिर आगे राजस्थान पधारे , भारत की धरती का अंतिम छोर वहां तक पधार गए थे, तो दक्षिण भारत भी गुरुदेव तुलसी की विहार भूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी भूमि है। गुरुदेव तुलसी में कितनी प्रतिभा थी और आचार्य महाप्रज्ञ जी, जो उनके उत्तराधिकारी थे, उनमें कितनी प्रज्ञा, प्रतिभा थी । कितना संस्कृत का, आगमों का, विभिन्न विषयों का ज्ञान था , कितना साहित्य का प्रलयन किया ।
ज्ञान विकास के लिए बुद्धि होती है तो ज्ञान विकास हो सकता है । मंदबुद्धि है वह धीरे धीरे भले चले, दो श्लोक भी याद न कर सके और एक आदमी 20-25-30 या उससे भी ज्यादा श्लोक याद कर लेता है , तो स्मृति शक्ति का अंतर होता है । शिक्षा प्राप्त करनी है तो याद रखो की अविनीत को विपत्ति मिलती है और विनीत को संपति मिलती है , यह दो बातें जो जान लेता है,दिमाग मे बैठा लेता है वह शिक्षा के क्षेत्र में भी विकास के सकता है । ज्ञान के प्रति विनय है, सच्चाई के प्रति विनय है , ज्ञानदाता के प्रति भी विनय है तो आदमी आगे बढ़ सकता है । विनय भी सहायक है ज्ञान के विकास में । जो विनय न रखे, न ज्ञान का विनय है, न ज्ञानी का विनय है , न ज्ञानदाता का विनय है तो कुछ अवरोध भी आ सकता है । हमे अपने जीवन मे ज्ञान का, सच्चाई का विनय रखना चाहिए । शास्त्रों में जो ज्ञान देने वाले हैं, उनकी भी आशातना नही करनी चाहिए । जिनमे ज्ञान है चाहे वह शास्त्र है या  व्यक्ति है उसकी अवहेलना नही करनी चाहिए । ज्ञान की अवहेलना करने से ज्ञान पर आवरण आ सकता है । कोई ज्ञान की अवहेलना करे उसके अगले जन्म में ज्ञान पर पर्दा आ सकता है । हम दिखते है कि कई बच्चे मानसिक रूप से अविकसित होते हैं ,विशेष बुद्धि नहीं होती, हो सकता है उन्होंने पूर्व जन्म में ऐसा कोई कर्म किया होगा कि आज उनके ज्ञान पर आवरण आ गया है । ज्ञान और ज्ञानी की अवहेलना हमे हमारे जीवन में नहीं करनी चाहिए ताकि हमारा ज्ञान आवृत न हो, ज्ञानावरणीय कर्म के द्वारा उस पर पर्दा न आ जाये । इसलिए शास्त्रकार ने यह मंत्र दिया है कि अविनीत को विपदा मिलती है और विनीत को सम्पदा मिलती है , तो हमें विनीत रहने का प्रयास करना चाहिए और ज्ञान के प्रति विनय के साथ अपनी प्रतिभा का उपयोग करते हुए ज्ञान का विकास करने का प्रयास करना चाहिए । जिसके पास प्रतिभा का योग है उसे ज्ञान के ओर अधिक विकास का प्रयास करते रहना चाहिए ।

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