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जो शांत होता है, वह संत होता है -आचार्य श्री महाश्रमण

मोहनीय कर्म को क्षीण कर शांति, शक्ति एवं वीतरागता से सम्पन्न बनने की दी प्रेरणा

19 फरवरी, 2020, हेब्बल, कर्नाटक, विश्व मैत्री के संदेश को जन जन तक पहुंचाते जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण अपनी धवल सेना के साथ नरसिंहपुर से विहार कर गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल, हेब्बल पधारे । स्कूल में उपस्थित जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए पूज्य प्रवर ने फरमाया कि हमारे जीवन मे शांति का बड़ा महत्व है । आदमी के पास सुविधाएं उपलब्ध है, पर शांति नहीं है , मन अशांत रहता है तो यह एक कमी की बात  हो सकती है । शास्त्रों में उल्लेखित श्लोक की व्याख्या करते हुए पूज्य आचार्य श्री ने फरमाया कि जो बुद्ध अतीत में हुए हैं और जो अनागत काल में होंगे, उन सब का आधार , प्रतिष्ठान शांति है । जैसे जीवों का आधार पृथ्वी होती है, वैसे ही बुद्धों का आधार शांति होती है । प्रश्न हो सकता है कि शांति कैसे आधार हो सकती है ? उत्तर मिला - बुद्धत्व, तीर्थंकरत्व, वितरागत्व शांति के बिना नहीं मिल सकता है । हमारी शांति का सम्बंध मोहनीय कर्म से है ।

His Holiness Aacharya Mahashraman Ji 
तत्व की दृष्टि से मोहनीय कर्म की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने आगे फ़रमाया कि चित को अशांत बनाने में मोह कर्म का योगदान होता है । चैतसिक अशांति पैदा करने में मोह कर्म की अच्छी खासी भूमिका होती है क्योंकि इसके पास गुस्सा, अहंकार, माया, लोभ, चिंता, भय जैसे हथियार है , जो हमारी शांति को नष्ट करने में काफी सक्षम है । मोहनीय कर्म का क्षीण होने के बाद ही केवलज्ञान मिलता है । बारहवें गुणस्थान "क्षीण मोह गुणस्थान" में मोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है और तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्राप्त होता है । केवलज्ञान के लिए यह एक सशक्त शर्त ही कि पहले मोहनीय कर्म को हटाओ, उसका क्षय करो फिर ही केवलज्ञान आने को एकदम तैयार रहता है । इसलिए बुद्धत्व, केवलज्ञानत्व का आधार शांति है ,मोहनीय कर्म गया तो पूरी शांति ही शांति है । इसलिए यह कहा गया है कि बुद्धत्व का आधार शांति है , वह शांति के बिना, मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर प्राप्त होता है । सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ का स्मरण करते हुए पूज्य श्री ने आगे कहा कि भगवान शान्तिनाथ शांति करने वाले हैं । वे अनुत्तर गति को प्राप्त हो गए । वे चक्रवर्ती थे, महर्दिव थे, परन्तु सन्सार छोड़कर वे साधु बन गए ।    

शान्तिनाथ का जप करने से भी हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं । मूल बात है मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर ही शांति मिलेगी और मोहनीय कर्म को क्षीण करने के लिए साधना की आवश्यकता रहती है । साधनों, संसाधनों से सुविधा मिल सकती है, पर आत्मिके शांति नही मिल सकती क्योंकि उसका संबंध साधना से है । साधना की उपयोगिता बताते हुए आचार्य श्री ने आगे कहा कि सुविधा का संबंध साधनों से है और शांति का संबंध साधना से है , इसलिए साधु, भिक्षुक या साधना में रत गृहस्थ के पास भले सुविधा के साधन न हो फिर भी वे  शांति से रह सकते हैं । साधन मिल भी जाये तो भी चित अशान्त रह सकता है । शांति चाहिए तो हमें साधना की शरण मे आना होगा, धर्म की शरण में आना होगा और मोहनीय कर्म को कमजोर बनाना पड़ेगा , उससे अलग होना पड़ेगा । मोहनीय कर्म  की अनन्त काल से चली आ रही मित्रता को तोड़ने की प्रेरणा देते हुए पूज्य प्रवर के आगे कहा कि अभव्य जीव को तो न मोहनीय कर्म छोड़ता है और न अभव्य जीव मोहनीय कर्म को छोड़ता है पर भव्य जीवों को मोहनीय कर्म की दोस्ती को खत्म करने का प्रयास करना चाहिए । हम मोहनीय कर्म के दोस्तीचारे को खत्म कर शांति को प्राप्त करें । मोहनीय कर्म का टूटना बहुत नदी बात है अतः इससे अलग होकर हम शांति संम्पन्न बने, शक्ति सम्पन्न बने, वीतरागता से सम्पन्न बने । 

सन्त के गुणों की चर्चा करते हुए आचार्य श्री ने आगे फ़रमाया कि जो शांत होता है, जिसमें शान्ती होती है वह संत होता है । हम शांति की साधना से सन्तता को प्राप्त के सकते हैं । तेरापंथ के पँचमाचार्य वीतराग कल्प पूज्य मघवागणी का स्मरण करते हुए आचार्य प्रवर ने फरमाया कि वे शांत स्वभाव के व्यक्तित्व थे । वे पूज्य कालूगणी के गुरु और गुरुदेव तुलसी के दादागुरु थे । मघवागणी के जीवन प्रसंग की एक घटना का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री ने उनके निर्मल एवं शान्त व्यक्तित्व को व्याख्यायित किया ।शांति की साधना हेतु पूज्य प्रवर ने सामायिक करने की प्रेरणा देते हुए कहा कि शनिवार को सांयः 7 बजे से 8 बजे तक सामायिक करने का अवश्य प्रयास करें । सामायिक की साधना मोहनीय कर्म से दुराव रखने की साधना है अतः शनिवार के अलावा भी सामायिक , जप, उपवास आदि करने की प्रेरणा पूज्य प्रवर ने दी ।  साधना के द्वारा मोहनीय कर्म से अलगाव करने एवं आत्मा में रहने की प्रेरणा देते पूज्य प्रवर ने फरमाया कि हम आत्मस्थता में रहने की साधना करें और शांति के साथ , शांति में रहने का प्रयास करें ।


His Holiness Aacharya Mahashraman Ji 

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