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नवयुग के महावीर आचार्यश्री महाप्रज्ञ

  

खुले आकाश के नीचे जिन्होंने जन्म लिया, खेल-खेल में जिनका तीसरा नेत्र उद्घाटित हो गया, प्रारंभिक विद्यालय शिक्षा से जो अनभिज्ञ था, कौन जानता था वो बालक नथमल आगे चलकर आचार्य महाप्रज्ञ के नाम से विश्वविख्यात होगा, सच्चाई यह भी है कि वर्तमान का बिम्ब भावी के दर्पण में प्रतिबिंबित हो जाता है। सच ही कहा गया है कि भविष्य के गर्भ में अनेकानेक रहस्य छीपे होते हैं वे समय आने पर ही उद्घाटित होते हैं। राजस्थान के छोटे-से गाँव टमकोर में वि.सं. 1977 आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी (14 जून, 1910) के दिन माँ बालूजी-पिता तोलाराम जी चोरड़िया के आँगन में पुत्र का जन्म हुआ, जिसने व्यवहार जगत में नथमल नाम से पहचान बनाई। ढ़ाई महीने की शिशु अवस्था में बालक नथमल के सिर से पिता का साया उठ गया। परिवार में पिता का न होना अपने आपमें बड़ा संकट था परंतु माँ बालूजी ने इस संकट का अनुभव अपनी संतानों को नहीं होने दिया। उन्होंने न सिर्फ उस स्थिति को समभाव से सहा अपितु अपनी संतानों के संस्कार निर्माण में भी सजगता का परिचय दिया।

बचपन में ही बालक नथमल की अद्वितीय प्रतिभा निखर चुकी थी। कुछ विशेष घटना-प्रसंगों के बाद मात्र दस वर्ष की लघु वय में आपके मन में वैराग्य के बीज प्रफुटित हुए और आपने पारिवारिक मोहपाश व भौतिक सुख-सुविधाओं का परित्याग कर वि.सं.1987 माघ शुक्ला दशमी (29 जनवरी, 1931) अपनी माताजी के साथ सरदारशहर में तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। बालक नथमल अब मुनि नथमल हो गए। यह पल उस विराट यात्रा का आदि था जो ‘नियति' ने एक महापुरुष के लिए निर्धारित की थी। आचार्यश्री कालूगणी ने मुनि तुलसी को आपकी शिक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा। मुनि तुलसी के अध्यापन एवं आपके मेधावी अध्ययन ने शीघ्र ही आपको प्राकृत, संस्कृत, हिंदी तथा मारवाड़ी (राजस्थानी) भाषाओं में दक्ष कर दिया। जैन आगमों का तलस्पर्शी गहन अध्ययन किया। भारतीय एवं पश्चिमी दर्शन के भी आप समीक्षक बन गए। ज्ञान की बढ़ती पिपासा ने आपको भौतिकी, जैव-विज्ञान, आयुर्वेद, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि में भी पारंगत कर दिया। काव्य आपके नैसर्गिक गुणों में समाहित था। 

एक महान दार्शनिक, चिंतक, कवि, प्रखर वक्ता एवं उत्कृष्ट साहित्यकार होते हुए भी आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने आस्था की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की। वे अपने गुरु आचार्यश्री तुलसी के प्रति सर्वत्मना समर्पित थे। जहाँ उनका समर्पण, सहजता, विनम्रता, ऋजुता एक आदर्श प्रस्तुत करती थी, वहीं अपने गुरु के हर स्वप्न को साकार करने में सदैव तत्पर रहते थे। एक घटनाक्रम का उल्लेख करते हुए स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ लिखते हैं कि मैं मुनि तुलसी के पास बैठा था, उन्होंने मुझे अध्ययन के लिए प्रेरणा दी, जीवन विकास के कुछ सूत्र बताए और फि़र कहा-तुम भी मेरे जैसे बनोगे? मैंने कहा-मुझे क्या पता? आप बनाएँगे तो बन जाऊँगा।

गुरु-शिष्य का संबंध अद्भुत था। ‘तुलसी में महाप्रज्ञ- महाप्रज्ञ में तुलसी' दर्शित होते थे। अपनी विद्यमानता में ही अपने शिष्य को आचार्य पद पर नियुक्त कर आचार्यश्री तुलसी ने जो मिसाल कायम की उससे स्पष्ट परिलक्षित था शिष्य का गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण एवं श्रद्धा-आस्था की पराकाष्ठा। आचार्यश्री महाप्रज्ञ का जीवन विशिष्टताओं का पुंज था। आपने धार्मिक एवं बौधिक जगत के बीच नए क्षितिज उद्घाटित किए और एक प्रतिष्ठित संत के रूप में, मनीषी के रूप में उभरे। आचार्य महाप्रज्ञ का नाम बीसवीं शताब्दी के अध्यात्म के प्रतीक के रूप में लिया जाने लगा। मौलिक विचारों एवं समस्या के समाधान की अपनी प्रभावशाली शैली के लिए वे सुविख्यात थे। 

आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने ‘जैन आगमों' के संपादन जैसा महनीय कार्य तो किया ही साथ ही जैन दर्शन के फ़लक को विस्तार देते हुए सभी धर्माविलंबियों के लिए उसकी प्रासंगिकता भी सिद्ध की। आपने भगवान महावीर के सिद्धांतों को न सिर्फ पढ़ा, समझा, जाना अपितु आत्मसात भी किया एवं विशद् विवेचना के बाद संपूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु विभिन्न विधाओं में उसे प्रस्तुत किया। आप ‘नवयुग के महावीर' थे। जैन योग के क्षेत्र में आपके असाधारण एवं अनवरत योगदान के लिए ‘जैन योग पुनरुद्धारक' के रूप में अलंकृत हुए। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर' ने आचार्य महाप्रज्ञ को भारत का दूसरा ‘विवेकानंद' बताया वहीं दर्शन के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ0 राधाकृष्णन ने उन्हें ‘जैन न्याय विषय का सर्वाधिक विशेषज्ञ व्यक्ति' माना विज्ञान एवं अध्यात्म को परस्पर पर्याय के रूप में आपकी असाधारण प्रतिभा ने प्रस्तुत किया जो कि धार्मिक क्षेत्र में पूर्णतः नया सिद्धांत था। आपने मात्र सिद्धांत एवं आदर्श ही नहीं दिए अपितु उनके प्रायोगिक स्वरूप को प्रकट किया, जिससे अध्यात्म एवं विज्ञान समन्वय स्थापित हुआ। मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आपके इस मिशन (सिद्धांत) के मुरीद हुए और बिना किसी प्रोटोकोल के आपसे मिलने चले आते, विचारों को आदान-प्रदान करते। दोनों की आत्मीयता का बहुत बड़ा प्रमाण है आप दोनों द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई पुस्तक ‘सुखी परिवार - समृद्ध राष्ट्र'।

आचार्यश्री महाप्रज्ञ का जीवन प्रयोगधर्मा का जीवन रहा है। आपने प्रेक्षाध्यान विधि को पुनर्जीवित कर ध्यान की कुछ नई तकनीक खोजनी शुरू की। स्वयं अपने पर प्रयोग करते हुए बीस वर्ष की सतत् साधना के बाद आपने प्रेक्षाध्यान जैसी नितांत वैज्ञानिक तकनीक को मानव जाति के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक स्वास्थ्य हेतु समग्र विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया, जो कि स्वस्थ जीवन जीने की एक संपूर्ण चिकित्सा है। स्वस्थ समाज संरचना हेतु ‘जीवन विज्ञान' अर्थात् ‘जीवन जीने की कला' को शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रायौगिक अभिक्रम भी आपने प्रस्तुत किया, जो कि मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा में महत्त्वपूर्ण है। आचार्य महाप्रज्ञ का जीवन यथा नाम तथा गुण और यथा दृष्टि तथा सृष्टि साकार करता है, आपकी प्रबंधन कला अपने आपमें अद्भुत थी। आपने व्यक्ति, समाज, राष्ट्र, विश्व को नव जीवन प्रबंधन के सूत्र एवं विचार भी प्रदान किए। 

आचार्यश्री महाप्रज्ञ उच्च कोटि के साहित्यकार एवं प्रबुद्ध चिंतक थे। अहिंसा, नैतिकता, शांति, सधार्मिक सौहार्द, पर्यावरण आदि विभिन्न विषयों पर आपका मौलिक एवं दूरदर्शितापूर्ण चिंतन समग्र विश्व के लिए अभिप्रेरक रहा है, वहीं ध्यान, योग, दर्शन, धर्म, संस्कृति, विज्ञान, स्वास्थ्य, जीवनशैली, शिक्षा, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि समसामायिक विषयों पर अपनी लेखनी से 300 से अधिक पुस्तकों का संपादन कर साहित्य संपदा को समृद्ध किया है। आपकी साहित्यिक संपदा के बारे में सुप्रसिद्ध बांग्ला लेखक श्री विमल मित्र कहते थे- ‘यदि मैं अपने कैरियर के प्रारंभ में उनसे मिला होता तो मेरी साहित्यिक  यात्रा एक नया सफ़र तय करती'।

आचार्य महाप्रज्ञ का विलक्षण प्रतिभा संपन्न जीवन था। आपकी वैशिष्ट्य से अणुप्राणित जीवनशैली का ही परिणाम था कि देश-विदेश के प्रमुख समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, धर्मगुरु, राजनेता, प्रबुद्ध विचारक-चिंतक, विद्वत्जन आदि अनेकानेक गणमान्य व्यक्ति आपके सान्निध्य में आकर अपनी समस्याओं का समाधान पाते। यह सब आपके पवित्र आभामंडल का ही चमत्कार था। आपश्री को देश-विदेश से कई विशिष्ट सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हुए जो आपके नाम के साथ जुड़कर स्वयं धन्य हो गए। यह सभी आपके विलक्षण व्यक्तित्व का ही प्रभाव था। 

आगम का एक सूत्र है-‘महप्पसाया इसिणो हवंति'। ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं। उनके भीतर-बाहर अविरल आनंद का झरना बहता रहता है। जिसे आनंद का यह स्रोत मिल जाता है, उसे सब कुछ मिल जाता है। ‘रहो भीतर-जीओ बाहर' इस सूत्र को आत्मसात कर हर क्षण आनंदमय जीवन जीने वाले विराट, विशिष्ट, विलक्षण, बहुमुखी, अंतर्मुखी, व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का नाम था-‘आचार्यश्री महाप्रज्ञ'। ‘आत्मा मेरा ईश्वर है', त्याग मेरी प्रार्थना है, मैत्री मेरी भक्ति है, संयम मेरी शक्ति है, अहिंसा मेरा धर्म है, जिनके जीवन के स्वर्णिम सूत्र थे। अध्यात्म जगत के दिनकर, बहुश्रुत, श्रुतधर, अध्यात्मविद, मनीषा के शिखर प्रज्ञा के निर्झर प्रज्ञा पुरुष की जन्मशताब्दी के समापन पर यही शुभ भावना कि प्रभो! हमें ऐसा आशीर्वाद दो कि आपकी प्रज्ञा रश्मियों से हमारी प्रज्ञा भी जागृत हो, आपके द्वारा प्रदत्त अवदानों की सौरभ से यह वसुंधरा सुरभित हो, जन-जन का कल्याण हो---। प्रज्ञा पुरुष महान योगी के श्रीचरणों में कोटिशः नमन्, अपनी इन भावनाओं के साथ-

महाकवि और दर्शनिक धीर-वीर गंभीर।
महाप्रज्ञ जी आप थे नवयुग के महावीर।।

- इंद्र बैंगाणी, दिल्ली

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