Top Ads

तेरापंथ के आद्यप्रणेता आचार्य भिक्षु - मुनि कमलकुमार

31-8-2020 भादवा सुदी तेरस को मनाया जाने वाला 218 वें भिक्षु चरमोत्सव पर मुनि श्री कमलकुमार जी के लेख विचार
आचार्य भिक्षु का जन्म राजस्थान के मारवाड़ के कांठा संविभाग के कंटालिया नगर के सकलेचा परिवार में पिता बल्लू शाह माता दीपां  की कुक्षि से विक्रम संवत 1783 आसढ शुक्ला त्रयोदशी के दिन (1 जुलाई 1726) मंगलवार को सिंह स्वप्न से हुआ। आप जन्मजात से ही एक प्रतिभावान और तेजस्वी थे। आपकी माता एक सरल स्वभावी और धर्मनिष्ठ थी। बाल्यकाल में ही आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। बड़े भाई अलग रहने लगे, आप घर की सारी जिम्मेदारी कुशलता से संपादित करते। 
आपकी धर्मपत्नी भी धर्मपरायण थी। एक पुत्री होने के पश्चात पति पत्नी धर्म के रंग में गहरे रंग गए। जब जब भी साधु साध्वियों का संयोग मिलता आप पूरा लाभ उठाते और उनसे आध्यात्मिक पाथेय प्राप्त करते रहते। साधु-संतों के संपर्क से आपकी सुप्त वैराग्य भावना उजागर हुई और उस दिशा में गतिमान हो गए। गृहस्थावास में ही आपने एकांतर अर्थात एक दिन छोड़कर एक दिन उपवास करना प्रारंभ कर दिया,रात्रि भोजन परिहार के साथ अब्रह्मचर्य का परित्याग कर साधना प्रारंभ कर दी। आपकी धर्मपत्नी सुगनी बाई भी आपके साथ ही दीक्षित होना चाहती थी, परंतु उनका आयुष्य कम होने के कारण स्वर्गवासी हो गई। उनके स्वर्गवास के पश्चात आपकी वैराग्य भावना और अधिक प्रबल हो गई। दीक्षा की बात जब माता को बताई तब माता ने घर में रहने का आग्रह किया, परंतु आपका मन पूर्ण विरक्त हो चुका था। आपने पूज्य रघुनाथ जी के पास जाकर अपनी बात कही और रघुनाथ जी तत्काल मां को समझाने पधारें और पूज्य प्रवर की प्रेरणा से माता ने दीक्षा की अनुमति दे दी और विक्रम संवत अट्ठारह सौ आठ मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को बगड़ी नगर के सरिता तट पर वटवृक्ष के नीचे आपने दीक्षा स्वीकार की। 
दीक्षित होते ही पूज्यप्रवर से आपको अयाचित आशीर्वाद मिला कि भीखण इस वट वृक्ष की तरह तेरा विस्तार हो। कहा जाता है कि आशीर्वाद एक बार मिलता है पर वह जीवन विकास का पथ प्रशस्त कर देता है। भीखण जी ने साधु बनते ही अपने महाव्रतों की परिपालना के साथ आगमों को कंठस्थ करना और उसे गहराई से समझने का प्रयास किया। आपकी विनम्रता पवित्रता सेवाभावना कर्तव्य परायणता देखकर पूज्य प्रवर ही नहीं अन्य साधु साध्वी श्रावक श्राविकाएं भी प्रसन्न थे। आप साधना के क्षेत्र में अहर्निश वर्धमान बनते जा रहे थे। विक्रम संवत 1815 में आपको गुरुदेव ने प्रथम बार राजनगर मेवाड़ में चतुर्मास के लिए भेजा। उस समय आपके साथ टोकर जी, हरनाथ जी, वीरभान जी और भारमल जी चार संत थे। राजनगर के श्रावक  अनास्थावान बनते जा रहे थे, इसलिए उन्हें धर्म में स्थिर करने के लिए ही विशेष कर भेजा गया। भीखण जी के आगमन से राजनगर के श्रावकों की शिथिलता पूर्ण समाप्त हो गई। आपकाआचार विचार व्यवहार देखकर श्रावको में चमक आ गई। लोगों की हार्दिक श्रद्धा भक्ति देखकर एक दिन भीखण जी ने वहां के विशिष्ट लोगों से सारी बातचीत की, तब पता चला कि आपका कथन बिल्कुल सत्य है परंतु आपके  शुद्धाचार विचार को देखकर सब प्रसन्न हो गए। भीखण जी ने अनास्था की स्थिति की जानकारी की तब श्रावको ने कहा आजकल आगम सम्मत साध्वाचार नजर नहीं आता यह हमारी अनास्था का मुख्य कारण है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि चतुर्मास का समय है आप कृपा कर आगम पढें देखें अगर हमारी त्रुटि है तो हम सुधारेंगे, अगर आपकी है तो आप सुधारें जिससे अनास्था का प्रसंग ही नहीं होगा। भीखण जी को बात अच्छी लगी उन्होंने चतुर्मास में दो दो बार आगम पढे, सही स्थिति की जानकारी की और उन्हें लगा कि श्रावको की बातें अन्यथा नहीं है। उन्होंने चतुर्मास के पश्चात पूज्य प्रवर के दर्शन कर सारी स्थिति स्पष्ट की परंतु उसका कोई समुचित समाधान नहीं होने से दो वर्षों के पश्चात अर्थात विक्रम संवत 1817 चेत्र सुदी नवमी के दिन आपने बगड़ी नगर से अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण करते ही संघर्षों का वातावरण प्रारंभ हो गया। प्रथम दिन आपको स्थानाभाव के कारण श्मशान में बनी जैतसिंह जी की छतरी में रहना पड़ा। आहार पानी वस्त्र आदि के कष्ट लंबे समय तक सहन किए परंतु आपका फौलादी संकल्प कभी कंपायमान नहीं हुआ। 
विक्रम संवत 1817 आषाढ़ सुदी पूर्णिमा शनिवार को नगर केलवा में पुनः भाव दीक्षा ग्रहण की। उस समय केवल तीन ही तीर्थ थे। साध्वियां विक्रम संवत 1821 में दीक्षित हुई। आपके शुद्धाचार विचार की सौरभ जगह-जगह फैलती गई। आपने विक्रम संवत 1832 में प्रथम मर्यादा पत्र लिखा और अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति की। समय-समय पर दीक्षाएं होती गई, श्रावक श्राविकायें बढ़ते गए। आप समय-समय पर मर्यादाएं  बनाते गए, जिससे साधु साध्वियों की साधना उत्तरोत्तर गतिमान रहे। विक्रम संवत 1860 में आपने मारवाड़ के सिरियारी में चतुर्मास किया और भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन संथारा करके इस नश्वर देह से विदाई ली। आपका हर दूरदर्शी चिंतन मील का पत्थर बन गया। आप द्वारा लिखी गई मूल मर्यादाओं में आज तक कोई परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। वर्तमान में इस धर्म संघ के एकादशवें अधिशास्ता महातपस्वी शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी हैं, जिनकी छत्रछाया में पूरा धर्म संघ साधना के क्षेत्र में विकासशील है। आचार्य भिक्षु के 218 महाप्रयाण दिवस पर शत शत वंदना।

Post a Comment

0 Comments