मंगल प्रवचन में धर्म देशना देते हुए आचार्य श्री ने कहा– आर्हत वाड्मय में कहा गया है– हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ व पांच कर्मेन्द्रिया होती हैं। कर्मेन्द्रियों का काम है – कार्य करना व ज्ञानेन्द्रियों का काम है ज्ञान प्राप्त करना। इनके अलग–अलग विषय भी होते है। जैसे श्रोतेन्द्रिय का विषय है - शब्द व प्रवृति है सुनना, वैसे ही चक्षु इन्द्रिय का विषय है – रूप व प्रवृति है देखना, घ्राण-इन्द्रिय का विषय है – गंध व प्रवृति है सूंघना, रसनेन्द्रिय का विषय है – रस व प्रवृति है चखना व स्पर्शेन्द्रिय, त्वचा का विषय है स्पर्श व प्रवृति है छूना। इसमें सबका अपना–अपना काम है, कोई न किसी में बाधक बनता है और न किसी में साधक लेकिन कानों से सुनी बात को आंखों से देख लिया जाता है तो बात पुष्ट हो जाती है।
आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि ये पाँचों इन्द्रियां सबको नहीं मिलती, हमें मिली है तो हम संसार के बड़े प्राणी है। लेकिन इन इन्द्रियों का अच्छा उपयोग करना हमारा काम है इन इन्द्रियों के मध्यम से सदप्रवृति भी की जा सकती है व दुष्प्रवृति भी। संयम रहित इन्द्रियां दुष्ट घोड़े की तरह होती है, जो कभी भी हमें नीचे गिरा सकती है। अतः इन्द्रियों को जीत ले व इनका संयम रखे तो ये बड़ी लाभदायक सिद्ध हो सकती है। स्वागत के क्रम में सरपंच श्री गुलाबसिंहजी और प्रिंसिपल श्री पुरखारामजी ने अपने विचार रखे।
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