31.12 .2015. सिंहेश्वर. महातपस्वी महामनस्वी आचार्य श्री महाश्रमणजी ने अपने प्रातःकालीन उद्बोधन में अर्हत वाड्मय के सूत्र को उद्घृत करते हुए फरमाया कि आत्मा एक अपेक्षा से शाश्वत है। जबकि शरीर अशाश्वत या विनाशी होता है। आत्मा शरीर से अलग भी है और वह नित्य है शास्वत है। हमारे भीतर का चेतना जागे। शरीर से आसक्ति मुक्त होकर आत्मा की ओर प्रयाण करने का प्रयास करना चाहिए। आत्मा की ओर प्रयाण करने के लिए अपेक्षित है कि हमारे राग द्वेष के भाव कमजोर पड़े। गुस्सा, अहंकार, माया, लोभ इनसे हम छुटकारा पाने का प्रयास करे। ऐसा अगर हो जाता है तो हम आत्मस्थ बन जाते है। गुरुओं की, संतों की, धर्म की शरण में आने वाला आदमी इस अशाश्वत देह से कभी छुटकारा प्राप्त कर सकता है।
हमारा शरीर अशुचिमय है। 12 भावनाओं में एक भावना है अशुचि भावना। हम शरीर की अशुचिता पर घ्यान देकर शरीर के ममत्व से मुक्ति का अभ्यास करे। शरीर से हमारा मोह कम हो जाए तो ममत्व भाव कम हो जाए। हमारा स्वरूप शुद्व है, ज्योर्तिमय है, निरार्मय है। शुद्व, ज्योर्तिमय और निरार्मय ऐसा हमारा आत्मा का स्वरूप है। हम उस स्वरूप का साक्षातकार कर सके।
हमारा शरीर अशुचिमय है। 12 भावनाओं में एक भावना है अशुचि भावना। हम शरीर की अशुचिता पर घ्यान देकर शरीर के ममत्व से मुक्ति का अभ्यास करे। शरीर से हमारा मोह कम हो जाए तो ममत्व भाव कम हो जाए। हमारा स्वरूप शुद्व है, ज्योर्तिमय है, निरार्मय है। शुद्व, ज्योर्तिमय और निरार्मय ऐसा हमारा आत्मा का स्वरूप है। हम उस स्वरूप का साक्षातकार कर सके।
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ॐ अर्हम
ReplyDeleteॐ अर्हम
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