व्यक्ति को सुकर्म करने के लिए सतत प्रयास करना चाहिए
गुवाहाटी, 14 जुलाई। परम पावन आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रातःकालीन अपने मुख्य प्रवचन में आत्मा के शाश्वत सत्य को उजागर करते हुए कहा कि प्राणी का यह शरीर अस्थायी है और आत्मा एक स्थायी तत्व है। यह शरीर विनाशधर्मा है पर आत्मा को न तो काटा जा सकता है, न सुखाया जा सकता है और न ही जलाया जा सकता है। यह आत्मा रुपी तत्व अमर है। आत्मा शरीर को धारण करती है। उस शरीर के विनाश होने पर आत्मा दूसरे शरीर को धारण करती है। यह आत्मा के पूनर्जन्म का सिद्धांत है। कुछ- कुछ आत्माएं अनन्त- अनन्त जन्म ग्रहण करती है और फिर सिद्धत्व को भी प्राप्त हो जाती है। पर कुछ आत्माएं अनन्त जन्मोें के बाद भी मोक्ष का वरण नहीं कर पाती, इनका पूूनर्जन्म होता रहता है। आचार्यप्रवर ने इस पूनर्जन्म के कारण पर प्रकाश डालते हुए कहा कि क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों के प्रवर्धमान होने के कारण पूनर्जन्म होता है। अगर ये कषाय शांत हो जाए तो पूनर्जन्म का सिससिला रूक सकता है। ये कषाय ही पूनर्जन्म का कारण है।
पूज्यवर ने आगे फरमाते हुए कहा कि आत्मा के पूनर्जन्म को आस्तिक लोग स्वीकार करते है और नास्तिक लोग स्वीकार नहीं करते है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति आत्मा को, पूनर्जन्म को माने या ना माने पर उसे कार्य हमेशा अच्छे ही करने चाहिए। क्यूंकि अगर वह अच्छा कार्य करेगा तो उसका वर्तमान जीवन अच्छा हो जाएगा और पूनर्जन्म हुआ तो आगे का जीवन भी अच्छा बन सकेगा। जैन दर्शन आत्मा के पूनर्जन्म को स्वीकार करती है। साधु बनकर व्यक्ति अपने इस जीवन के साथ परभव को भी सुंदर बना सकता है। साधु जीवन अध्यात्म की साधना का सुंदर उपाय है। व्यक्ति अच्छे कर्म करके अपने इस भव के साथ परभव को भी बढ़िया बना सकता है। इसलिए व्यक्ति को सुकर्म करने के लिए सतत् प्रयास करना चाहिए।
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